“महत्त्वाकांक्षा और लोभ” दो ऐसी भावनाएँ हैं जो मनुष्य को प्रेरित कर सकती हैं, लेकिन वे विनाशकारी भी हो सकती हैं। महत्त्वाकांक्षा हमें अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए प्रेरित कर सकती है, लेकिन यह हमें अनुचित तरीकों का भी उपयोग करने के लिए प्रेरित कर सकती है। लोभ हमें अधिक प्राप्त करने के लिए प्रेरित कर सकता है, लेकिन यह हमें लालची और स्वार्थी बना सकता है।
महत्त्वाकांक्षा और लोभ Summary in Hindi
महत्त्वाकांक्षा और लोभ लेखक परिचय :
पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी जी का जन्म 27 मई 1894 को खैरागढ़ (छत्तीसगढ़) में हुआ। शिक्षा के उपरांत आप साहित्य के क्षेत्र में आए। साहित्य क्षेत्र में आपकी निबंध, उपन्यास तथा समीक्षात्मक ग्रंथों में अलग पहचान दिखाई देती है। जीवन के कठीन सिद्धांत अर्थात तत्वों को दृष्टांत के सहारे स्पष्ट करने की आपकी शैली अद्वितीय है। आपका साहित्य समाज का दर्पण (mirror) ही नहीं बल्कि दीपक है।
जीवन की सच्चाइयों को बड़ी सरलता से व्यक्त करना तथा कहानी-सी मनोरंजकता के साथ प्रस्तुति आपके साहित्य की विशेष शैली बनी है। साहित्य और समाज सेवा में आपका जीवन बीता और 1971 में आपने इस संसार से बिदा ली।
महत्त्वाकांक्षा और लोभ प्रमुख कृतियाँ :
‘कथा चक्र’ (उपन्यास), “हिंदी साहित्य विमर्श’ और ‘विश्व साहित्य’ (समीक्षात्मक ग्रंथ), बख्शी ग्रंथावली, ‘पंचपात्र’, ‘पद्यवन’, ‘कुछ’, और कुछ (निबंध संग्रह)
महत्त्वाकांक्षा और लोभ विधा का परिचय :
‘निबंध’ एक गद्य विधा है। किसी विषय का यथार्थ चित्रण जिसमें किया जाता है। निबंध इस गद्य विधा से जीवन के तत्वों को बड़ी सरलता के साथ समाज के सामने रखा जाता है। वर्तमान परिस्थितियों का काफी सूक्ष्म चित्रण निबंध जैसी विधा में किया जाता है।
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ आदि निबंधकारों ने इस विधा को उच्च कोटी पर पहुँचा दिया है।
महत्त्वाकांक्षा और लोभ विषय प्रवेश :
ज्ञात से अज्ञात की ओर इसी शिक्षा प्रणाली की तरह प्रस्तुत निबंध में जीवन के तत्वों को आरंभ में काल्पनिक कथा से जोड़ दिया है। मछुवा और मछुवी की काल्पनिक कहानी हमें सरलता से समझा देती है कि, जीवन की अति महत्त्वाकांक्षा, अति लालसा, सर्वशक्तिमान होने की अभिलाषा जीवन को परास्त (defeated) करती है।
महत्त्वाकांक्षा और लोभ परिणामत:
मछुवा-मछुवी का सामान्य जीवन, मछली का वरदान, अभिलाषाओं का जागृत होना, मानवीय भावों को वश में न रखना, वरदान शाप में परिणत होना – मानवीय भावों के इस खेल में क्या सही, क्या गलत, दोष मछली का या मछुवी का – यही निबंध के चिंतन विषय हैं।
महत्त्वाकांक्षा और लोभ पाठ परिचय :
‘अति से तो अमृत भी जहर बन जाता है’ जीवन के इसी तथ्य को उजागर करने वाले इस निबंध में अति महत्त्वाकांक्षा के साथ असंतोष, अति लालसा, लोभ, स्वयं को सर्वशक्तिमान बना लेने की उत्कट अभिलाषा जीवन को परास्त कर देती है।
जो मिला है, जितना मिला है, उसी में संतुष्ट रहने के बजाय अधिक पाने की अभिलाषा मनुष्य को लोभ के जाल में फँसाती है। मछली के वरदान से मछुवा-मछुवी को घर मिला, धन मिला, राजकीय वैभव मिलने से मछुवी रानी भी बनी।
पर हिरण्यकश्यप की तरह सर्वशक्तिमान होने की अभिलाषा से उन्होंने सूर्य, चंद्र, तथा मेघ को अपनी आज्ञा में रहने का वरदान माँगा। मछली अप्रसन्न होकर शाप देती है – ‘जा-जा, अपनी उसी झोपड़ी में रह।’ वरदान शाप में परिणत होते ही मछुवा-मछुवी झोंपड़ी में रहने लगे।
यहाँ एक तरफ अभिलाषा है। अभिलाषाओं को जगाने वाली मछली है। मानवीय भावों के इस खेल में दोष किसका? यही तो निबंध का सार है।
महत्त्वाकांक्षा और लोभ पाठ का सारांश :
अप्राप्य की लालसा हमेशा मानव मन को लोभ के जाल में फँसाती रहती है और जीवन को तहस-नहस कर डालती है। जीवन के इसी सिद्धांत को इस निबंध में दृष्टांत द्वारा समझाया है।
एक कछुवा और कछुवी अपनी टूटी-फूटी झोंपड़ी में अपना जीवन व्यतीत कर रहे थे। मछुवा दिनभर मछलियाँ पकड़ता तो मछुवी दिन भर दूसरा काम करती थी तब कहीं खाने को मिलता था। यही उनका वर्तमान था, उन्हें न आशा थी, न कोई लालसा।
मछुवा एक दिन मछली पकड़ने नदी के किनारे गया। वहाँ नदी के किनारे एक छोटी सी मछली लताओं में फँसी थी। मछली ने मछुवे को देखकर पुकारा और मदद माँगी कि, मुझे पानी में छोड़ दो। मछुवे ने निस्वार्थ भाव से मछली को पानी में छोड़ा।
मछली ने पहले गड्ढे के पानी में, फिर नदी के पानी में छोड़ने की बात की। मछुवे ने वैसा ही किया। फिर मछली ने मछुवे को नदी के किनारे रोज आकर बैठने की बात की ताकि उसका मन बहल जाए। मछुवा वैसा ही करता रहा।
पत्नी के पूछने पर मछुवे ने पूरी घटना बता दी। पत्नी ने कहा तुम कुछ नहीं समझते, वह मछली कोई साधारण नहीं है। मछली के रूप में कोई देवी होगी। उससे कुछ माँग लो।
पत्नी के कहने पर मछुवे ने मछली से अपने लिए घर माँगा। मछली के वरदान से मछुवे का घर बन गया। मछुवी में लोभ जागा। उसने सोचा घर होने से क्या होगा? धन चाहिए। फिर उसने धन माँगा तो धन मिला पर मछुवी की महत्त्वाकांक्षा बढ़ गई। उसने राजवैभव माँगा। फिर राजवैभव मिल गया।
उसका लोभ बढ़ा और उसने फिर रानी होने की अभिलाषा रखी। मछुवी राजमहल में रानी बन गई। अति लोभ से मछुवी ने अपने पति से कहलवाकर मछली से – सूर्य, चंद्र, मेघ पर अपने अधिकार में होने की माँग की। मछली ने रुष्ट होकर कहा – “जा – जा अपनी उसी झोपड़ी में रह।”
मछली के इसी शाप से सब समाप्त होकर मछुवा और मछुवी अपनी उसी – टूटी-फूटी झोंपड़ी मे आ गए। कथा समाप्त हो गई।
प्रस्तुत निबंध से लेखक बताना चाहते हैं कि मछुवा और मछुवी की कही कथा सच नहीं थी पर लोगों के मनोरथों की कथा सच है।
Conclusion
महत्त्वाकांक्षा और लोभ दोनों ही शक्तिशाली भावनाएँ हैं जो हमारे जीवन को प्रभावित कर सकती हैं। महत्त्वाकांक्षा हमें सफल होने के लिए प्रेरित कर सकती है, लेकिन यह हमें अनुचित तरीकों का भी उपयोग करने के लिए प्रेरित कर सकती है। लोभ हमें लालची और स्वार्थी बना सकता है।