सच्ची वीरता निबन्ध Summary In Hindi

“Sacchi Veerta” is a Hindi phrase that translates to “True Courage” or “Genuine Bravery” in English. It refers to the quality of having genuine, unwavering courage and valor. It signifies the ability to face challenges, difficulties, and adversities with honesty, integrity, and fearlessness. This kind of courage goes beyond just physical bravery; it also encompasses moral and emotional strength to stand up for what is right, even in the face of opposition or danger. “Sacchi Veerta” implies a deeper level of courage that comes from one’s inner convictions and principles, making it a commendable and admirable trait. Read More Class 12 Summaries.

सच्ची वीरता निबन्ध Summary In Hindi

सच्ची वीरता जीवन परिचय

अध्यापक पूर्ण सिंह का संक्षिप्त जीवन-परिचय लिखें।

अध्यापक पूर्ण सिंह का जन्म सन् 1881 ई० में तथा मृत्यु सन् 1931 में हुई। अध्यापक होने के नाते इनके नाम के साथ अध्यापक शब्द जुड़ गया है। ‘आचरण की सभ्यता’, ‘मज़दूरी और प्रेम’, ‘सच्ची वीरता’ और ‘नयनों की गंगा’ इनके प्रसिद्ध निबन्ध हैं। इनके निबन्धों का आधार मानवीय दृष्टि एवं आध्यात्मिक चेतना है। पूर्ण सिंह ऐसे संवेदनशील व्यक्ति थे जो औद्योगिक क्रान्ति की अपेक्षा मानव के आचरण की पवित्रता को अधिक महत्त्व देते थे। इन्होंने अपने निबन्धों को दृष्टान्तों के माध्यम से सरल और रोचक बनाने का प्रयास किया। इनकी भाषा प्रवाहमयी तथा लाक्षणिक शब्दावली से युक्त है।

सच्ची वीरता का सारांश

‘सच्ची वीरता’ निबन्ध के रचयिता अध्यापक पूर्ण सिंह जी हैं। यह उनका एक विचारात्मक निबन्ध है जिसमें लेखक ने यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि वीरता मनुष्य का सर्वश्रेष्ठ गुण है। इसका क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है। रणक्षेत्र में अपना बलिदान देने वाले योद्धा ही वीरों की कोटि में नहीं आते वरन् किसी पवित्र ध्येय, आदर्श और कार्य के लिए अपना जीवन होम कर देने वाले व्यक्ति भी सच्चे वीर हैं, वीरों के कार्यों की गूंज शताब्दियों तक गूंजती रहती है। वीरों का निर्माण किसी बाहरी प्रेरणा से नहीं होता, वे तो अपनी आन्तरिक प्रेरणा से ही सत्कार्यों में लीन होते हैं। मानवता की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व अर्पित कर देने वाले सब से बड़े वीर हैं।।

सच्चे वीर पुरुष स्वभाव से धीर, वीर, गंभीर एवं स्वतंत्र होते हैं। उनके मन की गम्भीरता सागर के समान विशाल एवं गहरी अथवा आकाश के सामान स्थिर होती है। उनके कार्य दूसरों को प्रेरणा देते हैं। जिनका मन सात्विक वृत्तियों के सागर में डूब जाता है वे ही सच्चे वीर, महात्मा एवं साधु कहलाते हैं। उनका व्यक्तित्व दिव्य होता है। प्रकृति भी सच्चे वीरों की पूजा करती है। सच्चे वीर ही असली राजा हैं, सोने के सिंहासनों पर बैठने वाले लोग असली शासक नहीं क्योंकि वे तो निर्धनों का शोषण कर महान् बने हैं। वे अपने पापों के कारण हमेशा कांपते रहते हैं। लेखक के कहने का भाव यह है कि सरलता तथा साधुता के पथ पर चलने वाले लोग ही सच्चे वीर कहलाने के अधिकारी हैं।

सच्चे वीरों को कोई पराजित नहीं कर सकता। वे बड़े-बड़े बादशाहों को भी ताकत की हद दिखला देते हैं। बादशाह शरीर पर शासन करता है जबकि वीर व्यक्ति अपने कारनामों से लोगों के दिलों पर शासन करते हैं। सच्चा वीर अपने जीवन का उत्सर्ग करने में विलम्ब नहीं करता।

सच्ची वीरता निबन्ध Summary

वीर पुरुष हर समय अपने आपको महान् बनाने में लीन रहता है। वह न तो अपने कारनामों का गुणगान करता है और न ही उन्हें याद रखता है। वह तो उस वृक्ष के समान होता है.जो पृथ्वी से रस लेकर अपने आपको पुष्ट करता है। वह इस बात की चिन्ता नहीं करता कि उस पर फल कब लगेंगे और कौन उनको खाएगा। उसका लक्ष्य तो अपने अन्दर सत्य को कूट-कूट-कूट कर भरना है। सच्चे वीरों का जीवन परोपकार के लिए होता है। वीरता का विकास विभिन्न क्षेत्रों में होता है। कभी युद्ध के मैदान में, कभी प्रेम के क्षेत्र में वीरता अपना कमाल दिखाती है और कभी जीवन के किसी गूढ़ तत्व एवं सत्य की खोज में बुद्ध जैसे राजा ऐश्वर्य का परित्याग कर आगे बढ़ते हैं।

वीरता एक प्रकार का दैवी गुण है, वीरता की नकल सम्भव नहीं। जापानी वीरता की मूर्ति की पूजा करते हैं। वीर पुरुष अपने समाज का प्रतिनिधि होता है। उसका मन सब का मम तथा उसके विचार सबके विचार बन जाते हैं। लेखक ने स्पष्ट किया है कि वीर बनाने से नहीं बनते। ये तो अपनी अन्तः प्रेरणा से अपना निर्माण आप करते हैं। “वे तो देवदार के वृक्षों की तरह जीवन के अरण्य में अपने-आप पैदा होते हैं और बिना किसी के पानी दिए, बिना किसी के दूध पिलाए, बिना किसी के हाथ लगाए तैयार होते हैं।”

सच्चे वीर आत्मोत्सर्ग में विश्वास करते हैं। वे अपने अन्दर की शक्ति के विकास में लीन रहते हैं। वीर पुरुष स्वभाव से धीरे एवं गम्भीर होते हैं। वे न तो जल्दी चंचल बनते हैं और न ही उनके साहस एवं ओज को शीघ्र दबाया जा सकता है। आगे लेखक कहता है कि वीरों को आडम्बर अथवा दिखावे का आश्रय नहीं लेना चाहिए। अपने भीतर ही भीतर वीरत्व को संजोना चाहिए और समय आने पर उसे प्रकट करना चाहिए।

अन्त में लेखक कहता है कि जब कभी हम वीरों की कहानियां सुनते हैं तो हमारे अन्दर भी वीरता की लहरें उठती हैं लेकिन वे चिरस्थायी नहीं होतीं। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि जिस धैर्य एवं साहस की आवश्यकता होती है उसका प्रायः हमारे हृदय में अभाव होता है। इसलिए हम वीरता की कल्पना करके रह जाते हैं। टीन जैसे बर्तन का स्वभाव छोड़कर हमें अपने भीतर निवास करना चाहिए। अपने जीवन को दूसरे के लिए अर्पित कर देना चाहिए ताकि इसकी रक्षा की चिन्ता से मुक्त हो जाए। सच्चा वीर बनने के लिए यह आवश्यक है कि अपने भीतर के गुणों का विकास किया जाए।

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