The phrase “Kya Nirash Hua Jaye” may be kind of translated to “Can sadness be Defeated?” in English. Within the context of the word, “Kya Nirash Hua Jaye,” the essay or dialogue may explore diverse views on disappointment, its effect on people, and strategies to deal with or overcome it. It could delve into the emotional, psychological, and practical aspects of coping with disappointment and whether or not it’s far viable to conquer it. The dialogue may contain private experiences, anecdotes, and examples to illustrate the theme and offer insights into coping with disappointment. Read More Class 12 Summaries.
क्या निराश हुआ जाए? Summary In Hindi
क्या निराश हुआ जाए? जीवन परिचय
हजारी प्रसाद द्विवेदी का जीवन परिचय लिखें।
हजारी प्रसाद द्विवेदी का जन्म गाँव आरतदुबे का छपरा, जिला बलिया (उत्तर प्रदेश) में सन् 1907 में हुआ। संस्कृत विश्वविद्यालय काशी से शास्त्री की परीक्षा तथा हिन्दू विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा प्राप्त कर काशी विश्वविद्यालय तथा पंजाब विश्वविद्यालय में हिन्दी-विभागाध्यक्ष रहे। इन्हें ‘आलोकपर्व’ पर साहित्य अकादमी पुरस्कार तथा भारत सरकार द्वारा पद्म भूषण अलंकार से सम्मानित किया गया था। इनका साहित्य मानवतावाद एवं भारतीय संस्कृति से युक्त है। सन् 1979 में दिल्ली में उनका निधन हो गया।
अशोक के फूल, विचार और वितर्क, कल्पलता, कुटज, आलोक पर्व इनके निबन्ध संग्रह हैं। चारूचन्द्रलेख, बाणभट्ट की आत्मकथा, अनामदास का पोथा इनके प्रसिद्ध उपन्यास हैं। सूर-साहित्य, हिन्दी-साहित्य की भूमिका इनके आलोचनात्मक ग्रन्थ हैं।
क्या निराश हुआ जाए? निबन्ध का सार
‘क्या निराश हुआ जाए ?’ आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा रचित विचारात्मक निबन्ध है, जिसमें लेखक ने देश की सामाजिक बुराइयों पर प्रकाश डालते हुए स्पष्ट किया है कि समाचार पत्रों को बुराइयों के साथ-साथ अच्छाइयों को भी उजागर करना चाहिए। लेखक का मन समाचार-पत्रों में ठगी, डकैती, चोरी, तस्करी और भ्रष्टाचार के समाचार पढ़कर कभी-कभी बैठ जाता है। इन्हें पढ़कर लगता है कि देश में ईमानदार आदमी रह ही नहीं गया है। लेखक को एक बड़े आदमी ने एक बार कहा था कि जो आदमी कुछ नहीं करता वह अधिक सुखी है क्योंकि उसके किए काम में कोई दोष नहीं निकालता। लेखक को भारत की ऐसी हालत देखकर दुःख होता है किन्तु लेखक को विश्वास है कि हमारे महान् मनीषियों के सपनों का भारत है और रहेगा। यह सच है कि इन दिनों कुछ ऐसा वातावरण बन रहा है कि ईमानदारी करके कमाने वाले मज़दूर पिस रहे हैं और धोखे का धन्धा करने वाले फल फूल रहे हैं।
लेखक का विचार है जो ऊपर से दिखाई देता है वह मनुष्य द्वारा ही बनाया गया है। मनुष्य सामाजिक नियमों को परिस्थिति अनुसार बदलता भी रहता है। इस बदलाव को देखकर निराश होना ठीक नहीं है। भारत वर्ष ने कभी भी सांसारिक वस्तुओं के संग्रह को महत्त्व नहीं दिया बल्कि उसने आत्मा को चरम और परम माना। लोभ-मोह आदि विकारों के वश में होना उसने कभी उचित नहीं माना। इन विचारों को संयम के बँधन से बाँधने का प्रयत्न किया। परन्तु भूख की, बीमार के लिए दवा की और भटके हुए को रास्ते पर लाने के उपायों की उपेक्षा नहीं की जा सकती।
लेखक कहते हैं कि व्यक्ति का चित्त हर समय आदर्शों पर नहीं चलता। मनुष्य ने जितने भी उन्नति के कानून बनाए उतने ही लोभ-मोह आदि विकार बढ़ते गए। आदर्शों का मजाक उड़ाया गया और संयम को दकियानूसी कहा गया। परन्तु इससे भारतीय आदर्श अधिक स्पष्ट और महान् दिखाई देने लगे।
क्या निराश हुआ जाए? निबन्ध Summary
भारतवर्ष में कानून को धर्म का दर्जा दिया गया किन्तु कानून और धर्म में अन्तर कर दिया गया है। धर्म को धोखा नहीं दिया जा सकता कानून को दिया जा सकता है। इसी कारण से धर्मभीरू कानून की कमियों से लाभ उठाने में संकोच नहीं करते। भारतवर्ष में अब भी यह अनुभव किया जाता है कि धर्म कानून से बड़ी चीज़ है। भ्रष्टाचार आदि के प्रति लोगों का क्रोध यह सिद्ध करता है कि लोग इसे गलत समझते हैं। सैंकड़ों घटनाएँ आज भी घटती हैं जो लोक-चित्त में अच्छाई की भावना को जगाती हैं। लेखक ने ऐसी दो घटनाओं का उल्लेख किया जिनमें पहली रेलवे के एक टिकट बाबू की ईमानदारी और दूसरी एक बस कंडक्टर की मानवीयता को उजागर करने वाली घटना शामिल है। इन घटनाओं का उल्लेख करते हुए लेखक कहते हैं कि निराश होने की ज़रूरत नहीं है। भारत में अब भी सच्चाई और ईमानदारी मौजूद है।
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