The phrase “Maine Kaha Ped” translates to “I Said to the Tree” in English. It suggests that this is the beginning of a poem or a literary work in which the speaker addresses or communicates with a tree. The theme of talking to nature, including trees, is a common motif in poetry and literature, often used to explore deeper philosophical or environmental themes. Read More Class 9 Hindi Summaries.
मैंने कहा, पेड़ Summary In Hindi
अज्ञेय कवि-परिचय
जीवन-परिचय:
सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ हिंदी-साहित्य के प्रसिद्ध कवि, कथाकार, ललित निबंधकार, संपादक और सफल अध्यापक के रूप में प्रसिद्ध रहे हैं। आप हिंदी-साहित्य के प्रयोगवादी काव्यधारा के प्रवर्तक माने जाते हैं। आपका जन्म 7 मार्च, सन् 1911 ई० में देवरिया जिले में स्थित कुशीनगर (कसया पुरातत्व खुदाई शिविर) में हुआ था। आपके पिता पंडित हीरानंद शास्त्री पुरातत्व विभाग में थे और स्थान-स्थान पर घूमते रहते थे। इनका बचपन लखनऊ, कश्मीर, बिहार और मद्रास में बीता था। इनकी प्रारंभिक शिक्षा घर में हुई थी। इन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय से मैट्रिक की परीक्षा पास की थी। इन्होंने लाहौर से सन् 1929 में बीएस०सी० की परीक्षा पास की थी और फिर अंग्रेजी विषय में एम०ए० करने के लिए प्रवेश लिया था लेकिन क्रांतिकारी गतिविधियों में हिस्सा लेने के कारण इनकी पढ़ाई बीच में छूट गई थी। इन्हें सन् 1936 तक अनेक बार जेल-यात्रा करनी पड़ी थी। ‘चिंता’ और ‘शेखर : एक जीवनी’ नामक पुस्तकों को इन्होंने जेल में लिखा था। इन्होंने जापानी हाइफू कविताओं का अनुवाद किया था। साहित्यकार होने के साथ-साथ यह अच्छे फ़ोटोग्राफर और पर्यटक भी थे।
अज्ञेय ने कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय से लेकर जोधपुर विश्वविद्यालय तक पढ़ाया था। यह ‘दिनमान’ और ‘नवभारत टाइम्स’ के संपादक भी रहे थे। इन्हें सन् 1964 में ‘आंगन के पार द्वार’ पर साहित्य अकादमी पुरस्कार और ‘कितनी नावों में कितनी बार’ पर भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त हुआ था। इनका देहांत 4 अप्रैल, सन् 1987 में हो गया था।
रचनाएँ: अज्ञेय ने अपने जीवन में निम्नलिखित रचनाओं को रचा था-
काव्य: ‘भग्नदूत’, ‘चिन्ता’, ‘इत्यलम्’, ‘हरी घास पर क्षण-भर’, ‘बावरा अहेरी’, ‘इन्द्रधनुष रौंदे हुए ये’, ‘अरी ओ करुणा प्रभामय’, ‘आँगन के पार द्वार’, ‘पूर्वी’, ‘सुनहरे शैवाल’, ‘कितनी नावों में कितनी बार’, ‘क्योंकि मैं उसे पहचानता हूँ’, ‘सागर मुद्रा’, ‘सन्नाटा बुनता हूँ।
नाटक : ‘उत्तर प्रियदर्शी’।
कहानी संग्रह : ‘विपथगा’, ‘परम्परा’, ‘ये तेरे प्रतिरूप’, ‘कोठरी की बात’, ‘शरणार्थी’, ‘जिज्ञासा और अन्य कहानियाँ।
उपन्यास : शेखर एक जीवनी’ (दो भागों में), ‘नदी के द्वीप’, ‘अपने-अपने अजनबी’।
भ्रमण : वृत्त-‘अरे यायावर रहेगा याद’, ‘एक बूंद सहसा उछली’ ।
निबन्ध : संग्रह-‘त्रिशंकु ‘, ‘सबरंग’, ‘आत्मनेपद’, ‘हिंदी साहित्यः एक आधुनिक परिदृश्य सब रंग और ‘कुछ राग आलवाल’ ।
अनुदित: श्रीकांत’, (शरत्चंद्र का उपन्यास), टू इज़ हिज़ स्ट्रेंजर (अपने-अपने अजनबी)।
विशेषताएँ:
अज्ञेय ने अपने साहित्य में विश्व भर की पीड़ा को समेटने का प्रयत्न किया था। वे अहंवादी नहीं थे। उन्होंने प्रेम और विद्रोह को एक साथ प्रस्तुत करने की कोशिश की थी। वे मानते थे कि प्रेम ऐसे पेड़ के रूप में है जो जितना ऊपर उठता है उतनी ही उसकी गहरी जड़ें ज़मीन में धंसती जाती हैं। उन्होंने छोटी-छोटी कविताओं के द्वारा जीवन की गहरी बातों को प्रकट करने में सफलता प्राप्त की। उन्होंने अपने साहित्य में गरीब लोगों के प्रति सहानुभूति प्रकट की थी। उनकी कविता में प्रकृति के सुंदर रंगों की शोभा विद्यमान है। इनके साहित्य में परिवार, समाज, जीवन मूल्यों की गिरावट, राजनीतिक पैंतरेबाजी, जीवन की विषमता आदि को स्थान दिया गया है।
लेखक की भाषा अनगढ़ नहीं है पर वह इतनी सहज है कि बोझिल महसूस नहीं होती। इनकी कविता में लोक शब्दों का प्रयोग हुआ है। इसमें प्रवाहात्मकता है।
कवि कहता है कि उसने पेड़ से पूछा कि अरे पेड़ ,तुम इतने बड़े हो, इतने सख्त और मज़बूत हो । पता नहीं कि कितने सौ वर्षों से खड़े हो। तुमने सैकड़ों वर्ष की आँधी-तूफ़ान,पानी को अपने ऊपर झेला है पर फिर भी अपनी जगह पर सिर ऊँचा करके वहीं रुके हुए हो। प्रातः सूरज निकलता है और शाम को फिर डूब जाता है।
मैंने कहा, पेड़ कविता का सार
‘मैंने कहा, पेड़’ नामक कविता में पेड़ की सहनशीलता और मज़बूती को प्रकट किया गया है। पेड़ तरह-तरह की मुसीबतें झेलता है पर फिर भी शांत खड़ा रहता है। कवि ने पेड़ की प्रशंसा करते हुए कहा है कि वह बहुत बड़ा है। वह मज़बूत भी बहुत है। न जाने कितने सैंकड़ों वर्ष से वह अपनी जगह पर खड़ा है। तरह-तरह की ऋतुएँ उस पर अपना प्रभाव दिखाती हैं। गर्मी-सर्दी-वर्षा सब उस पर अपने रंग दिखाती हैं पर फिर भी वह उनसे अप्रभावित ही बना रहता है। यह सुनकर पेड़ की पत्तियाँ कांपती हुई बोली कि ऐसा नहीं है। मुझे इस मज़बूती का श्रेय मत दो। मैं गिरता, झुकता, उखड़ता और अब तक तो मैं ढूँठ बन कर टूट गया होता। मेरे इस प्रकार खड़े रहने का श्रेय तो मेरे नीचे की मिट्टी को है जिस में मेरी जड़ें धंसी हुई हैं। मैं जितना ऊँचा उठा हुआ हूँ उतनी ही गहराई में मेरी जड़ें समायी हुई हैं। श्रेय तो केवल इस मिट्टी को ही है। अपने सैंकड़ों वर्ष लंबे जीवन में मैंने बस इतना ही सीखा है कि जो मरण-धर्मा हैं वे ही जीवनदायी हैं।
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