“कनुप्रिया” हिन्दी साहित्य के आधुनिक काल की एक प्रसिद्ध कृति है। यह एक प्रेम कथा है, जिसमें राधा और कृष्ण के प्रेम को एक नये दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया गया है। इस कृति में राधा की नायिका के रूप में एक नई पहचान स्थापित की गई है। राधा को एक मात्र प्रेमिका के रूप में नहीं, बल्कि एक स्वतंत्र और आत्मनिर्भर नारी के रूप में चित्रित किया गया है।
पल्लवन Summary in Hindi
पल्लवन लेखक का नाम :
डॉ. दयानंद तिवारी। (जन्म 1 अक्तूबर 1962.)
पल्लवन प्रमुख कृतियाँ :
‘साहित्य का समाजशास्त्र’, ‘समकालीन हिंदी कहानी – विविध विमर्श’, ‘चित्रा मुद्गल के कथासाहित्य का समाजशास्त्र’, ‘हिंदी व्याकरण’, “हिंदी कहानी के विविध आयाम’ आदि। विशेषता समाजशास्त्री तथा प्रतिबद्ध साहित्यकार। महाविद्यालयीन समस्याओं के प्रति जागरूक। संप्रेषणीय एवं प्रभावोत्पादक भाषा। विधा : एकांकी। यह नाटक का एक प्रकार है।
पल्लवन विषय प्रवेश :
साहित्य शास्त्र में पल्लवन लेखन उत्तम साहित्यकार का लक्षण माना जाता है। पल्लवन अर्थात किसी लोकोक्ति, उद्धरण, सूक्ति आदि का विस्तृत वर्णन। प्रस्तुत पाठ में पल्लवन लेखन के विविध अंगों और नियमों को स्पष्ट करते हुए व्यावहारिक हिंदी के विभिन्न क्षेत्रों में उसकी उपयोगिता पर प्रकाश डाला गया है।
पल्लवन पाठ का सार
बारहवीं कक्षा की फाइनल परीक्षाएँ निकट हैं। हिंदी के अध्यापक विद्यार्थियों को पाठ्यक्रम का पुनरावलोकन करा रहे हैं। एक विद्यार्थिनी के पूछने पर वह पल्लवन के विषय में विस्तार से समझाते हैं।
पल्लवन का अर्थ है फैलाव या विस्तार। जब किसी शब्द, सूक्ति, उद्धरण, लोकोक्ति गद्य, काव्य पंक्ति आदि का अर्थ स्पष्ट करते हुए दृष्टांतों, उदाहरणों द्वारा उसका विस्तार किया जाता है, तो उसे पल्लवन कहा जाता है। विस्तार शब्द के कारण पल्लवन को निबंध नहीं समझा जाना चाहिए।
निबंध और पल्लवन में अंतर होता है। जहाँ निबंध में किसी विचार को विस्तार से लिखने के लिए कल्पना, प्रतिभा और मौलिकता का सहारा लिया जाता है, वहीं पल्लवन में विषय का विस्तार एक निश्चित सीमा के अंतर्गत ही किया जाता है। पल्लवन की कुछ विशेषताएँ और नियम होते हैं।
पल्लवन के लिए भाषा के ज्ञान के साथ-साथ विश्लेषण, संश्लेषण, तार्किक क्षमता, अभिव्यक्तिगत कौशल की आवश्यकता भी होती है। पल्लवन में भाव विस्तार के साथ चिंतन का भी स्थान होता है। प्रथम दृष्टि में किसी सूक्ति आदि का सामान्य अर्थ ही समझ आता है। परंतु जैसे-जैसे उस सूक्ति विशेष को ध्यानपूर्वक और बार-बार पढ़ते हैं, तो उसमें निहित गूढ अर्थ स्पष्ट होने लगता है।
पल्लवन की आवश्यकता पर प्रकाश डालते हुए अध्यापक स्पष्ट करते हैं कि वैज्ञानिक युग में पलने-बढ़ने के कारण आज की पीढ़ी लेखकों, कवियों, विचारकों आदि के मौलिक विचारों को समझने में अक्षम रहती है। ऐसे समय में पल्लवन हमारी सहायता करता है।
पल्लवन व्यक्तित्त्व निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। शारीरिक विकास के साथ-साथ मनुष्य का बौद्धिक विकास भी आवश्यक होता है। पल्लवन का महत्त्व केवल शिक्षा तथा साहित्य में ही नहीं है, बल्कि उत्कृष्ट वक्ता, पत्रकार, प्रोफेसर, नेता, वकील आदि को भी इस कला का ज्ञान होना चाहिए।
इतना ही नहीं, कहानी लेखन, संवाद लेखन, विज्ञापन, समाचार, राजनीति के साथ-साथ अन्य अनेक व्यवसायों में भी पल्लवन का प्रयोग होता है।
पल्लवन की विशेषताओं को इस प्रकार लिखा जा सकता है:
- कल्पनाशीलता
- मौलिकता
- सर्जनात्मकता
- प्रवाहमयता
- भाषा-शैली
- शब्द चयन
- सहजता
- स्पष्टता
- क्रमबद्धता।
पल्लवन की दो शैलियाँ प्रचलित हैं –
- इसमें प्रथम वाक्य से ही लेखक विषय पर आ जाता है। इसमें लंबी-चौड़ी भूमिका बनाने की आवश्यकता नहीं होती। प्रारंभ से ही रोचक, उत्सुकतापूर्ण शृंखला में बँधे वाक्य लिखे जाते हैं।
- कुछ विद्वान मानते हैं कि प्रारंभ के दो-तीन वाक्यों में भूमिका बनानी चाहिए। फिर दस-बारह वाक्यों में विषय का विस्तार करे तथा अंत में दोतीन वाक्यों में समाप्ति करें।
पल्लवन की प्रक्रिया के निम्नलिखित सोपान हैं :
- विषय को भली-भाँति पढ़ना, उसके भाव को समझना, उस पर ध्यान केंद्रित करना, अर्थ स्पष्ट होने पर एक बार पुनः विचार करना।
- विषय की संक्षिप्त रूपरेखा बनाना, उसके पक्ष-विपक्ष में सोचना, फिर विपक्षी तर्कों को काटने के लिए तर्कसंगत विचार एकत्रित करना। उसके बाद असंगत विचारों को हटाकर तर्कसंगत विचारों को संयोजित करना।
- शब्द सीमा के अनुसार सरल और स्पष्ट भाषा में पल्लवन करना। लिखित रूप को पुनः ध्यानपूर्वक पढ़ना। पल्लवन विस्तार में और सदैव अन्य पुरुष में लिखा जाता है। पल्लवन में लेखक के मनोभावों का ही विस्तार और विश्लेषण किया जाता है।
पल्लवन के बिंदु (पाठ्यपुस्तक पृष्ठ क्र. 84)
- पल्लवन में सूक्ति, उक्ति, पंक्ति या काव्यांश का विस्तार किया जाता है।
- पल्लवन के लिए दिए गए वाक्य सामान्य अर्थ वाले नहीं होते।
- पल्लवन में अन्य उक्ति का विस्तार नहीं जोड़ना चाहिए।
- क्लिष्ट शब्दों का प्रयोग न करें।
- पल्लवन करते समय अर्थों, भावों को एकसूत्र में बाँधना आवश्यक है।
- विस्तार प्रक्रिया अलग-अलग दृष्टिकोण से प्रस्तुत करनी चाहिए।
- पल्लवन में भावों-विचारों को अभिव्यक्त करने का उचित क्रम हो।
- वाक्य छोटे-छोटे हों जो अर्थ स्पष्ट करें।
- भाषा का सरल, स्पष्ट और मौलिक होना अनिवार्य है।
- पल्लवन में आलोचना तथा टीका-टिप्पणी के लिए स्थान नहीं होता।
पल्लवन
(1) नर हो, न निराश करो मन को।
मनुष्य संसार का सबसे अधिक गुणवान तथा बुद्धिशील प्राणी है। वह अपने बुद्धि कौशल तथा कल्पनाशीलता के बल पर एक से एक महान कार्य करता रहा है। शांति, सद्भाव, समानता की स्थापना के लिए मनुष्य सदैव प्रयासरत रहा, क्योंकि मनुष्य विधाता की सर्वोत्कृष्ट और सर्वाधिक गुणसंपन्न कृति है।
अतः उसे अपने जीवन में किसी भी परिस्थिति में निराश नहीं होना चाहिए। जीवन में सुख और दुख, लाभ और हानि, सफलता और असफलता उसी प्रकार हैं, जैसे सिक्के के दो पहलू। संसार में ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं है, जिसने अपने पूरे जीवन में कभी असफलता का मुँह न देखा हो।
हमें असफलताओं से घबराकर, हताश होकर नहीं बैठ जाना चाहिए। अगर मन ही पराजित हो गया तो वह इस धरा को स्वर्ग समान कैसे बना पाएगा। मनुष्य का विवेक, उसका मनोबल ही तो है, जो उसे हर समय कर्मरत रहने की, श्रेष्ठ से श्रेष्ठतर करने की प्रेरणा दिया करता है।
(2) अविवेक आपदाओं का घर है।
विवेक, बुद्धि और ज्ञान मानव की बौद्धिक संपदा है। मनुष्य जब कोई निर्णय लेता है तो उसे ऐसी विवेक शक्ति की आवश्यकता होती है, जो उसे उचित और अनुचित के बीच का भेद बता सके। बिना अच्छी तरह विचारे किए गए कार्य कष्टदायक होते हैं।
किसी भी मनुष्य की सफलता का श्रेय उसके विवेक को ही जाता है। किस समय कौन-सा निर्णय लिया गया, इस पर हमारा भविष्य बहुत कुछ निर्भर करता है। हमें सोच-विचारकर ही कोई कार्य करना चाहिए। बिना विचार किया गया कार्य पश्चाताप का कारण बनता है।
इसलिए हमें जो भी कहना है, उस पर मनन करें, चिंतन करें। जो कुछ भी कहें, उसे सोच-समझकर विवेक की कसौटी पर कसकर ही कहें। अविवेकी मनुष्य मूर्खतापूर्ण कार्य करता है और अपने जीवन को आपत्तियों से भर लेता है। अगर कोई हितैषी उसे आपत्तियों से बचाते हुए उचित मार्ग पर चलने की परामर्श भी देता है, तो वह हितैषी उसे परम शत्रु प्रतीत होता है।
(3) सेवा तीर्थयात्रा से बढ़कर है।
सेवा से बढ़कर कोई दूसरा धर्म नहीं है। इस तथ्य को सभी जानते हैं। लेकिन लोग सेवा को भूलकर तीर्थयात्रा के लिए यह सोचकर निकल पड़ते हैं कि उन्हें मोक्ष मिलेगा। लोग भूल जाते हैं कि सेवा का भाव ही संपूर्ण मानवता को चिरकाल तक सुरक्षित कर सकेगा।
सेवा समाज के प्रति कृतज्ञ लोगों का आभूषण है। मानव सेवा एवं प्राणिमात्र की सेवा संपूर्ण तीर्थयात्राओं का फल देने वाली होती है। ऐसे व्यक्ति हमारे आस-पास ही मिल जाते हैं, जिन्हें सेवा की आवश्यकता होती है। तीर्थयात्रा करने का फल कब मिलेगा, कैसा होगा? कोई नहीं जानता।
परंतु सेवा सदा शुभ फल ही देती है। ‘सेवा करे सो मेवा पाए।’ अतः हमें सेवा धर्म अपनाना चाहिए।
(4) जो तोको काँटा बुवै, ताहि बोइ तू फूल।
संसार का यह चलन है कि आपके शुभचिंतक कम मिलेंगे, अहित करने वाले या बुरा सोचने वाले अधिक। ऐसे लोगों के प्रति क्रोध की भावना होना स्वाभाविक है। साधारण मनुष्य यही करते भी हैं, परंतु अहित करने वाले का हित सोचना, काँटे बिछाने वाले के लिए फूल बिछाना, मारने वाले को क्षमा करना महान मानवीय गुण है। हमारी संस्कृति प्रारंभ से ही अहिंसा प्रधान रही है। सबके प्रति सद्भावना रखना एक प्रकार की साधना है।
प्रकृति भी हमें यही शिक्षा प्रदान करती है। वृक्ष पत्थर मारने वाले को फल देते हैं। सरसों निष्पीड़न करने वालों को तेल देती है। पत्थर पर घिसा जाने के बाद चंदन सुगंध और शीतलता देता है। जब ये पदार्थ निर्जीव होते हुए भी अपकार करने वालों का उपकार करते हैं तो मनुष्य को तो विधाता ने स्वभाव से ही परोपकारी बनाया है।
शत्रु को मित्र बनाने, विरोधियों का हृदय परिवर्तन करके उन्हें अनुकूल बनाने का यही सर्वोत्तम और स्थायी उपचार है कि हम उत्पीड़क को क्षमा करें। जो हमारा बुरा करता है, उसका भला करें। उसके मार्ग के कँटक दूर करके वहाँ फूल बिछा दें। भला करने वाला, फूल बिछाने वाला सदा लाभ में ही रहता है। काँटा बिछाने वाला स्वयं ही उसमें उलझकर घायल हो सकता है। अतः हमें अपकार करने वाले का भला करना चाहिए।
Conclusion
पल्लवन एक महत्वपूर्ण साहित्यिक विधा है, जो हमें मूल भावों को अधिक गहराई से समझने में मदद करती है। पल्लवन के माध्यम से, हम मूल भावों को नए दृष्टिकोण से देख सकते हैं और उनसे नई व्याख्याएं निकाल सकते हैं।