Meera Bai’s dohe are a testament to her intense devotion to Lord Krishna, her renunciation of worldly attachments, and her resilience inside the face of challenges. They function a source of non secular steering and proposal for the ones looking for a route of devotion and love for the divine. Read More Class 10 Hindi Summaries.
मीरा बाई के पद (दोहे) Summary In Hindi
मीराबाई कवयित्री परिचय
मीराबाई कृष्ण भक्तिकालीन कवियों में प्रमुख स्थान रखती हैं। उनका काव्य हृदय का काव्य है जिसमें कोमल भावधारा का स्वाभाविक प्रवाह है। उनका जन्म गाँव कुड़की, जोधपुर (राजस्थान) के राव रत्न सिंह राठौर के घर सन् 1498 ई० में हुआ था। शैशवावस्था में ही माता की मृत्यु हो जाने के कारण उनका पालन-पोषण दादा ने किया।
दादा की वैष्णव भक्ति ने मीरा को भी प्रभावित किया। मीरा का विवाह मेवाड़ के राणा सांगा के पुत्र भोजराज के साथ हुआ था। विवाह के कुछ समय पश्चात् ही उनके पति की मृत्यु हो गई। मीरा को संसार से विरक्ति हो गई। वे कृष्ण की उपासना में मग्न रहने लगीं। वे मंदिरों में कृष्ण की मूर्ति के आगे नाचतीं और साधु-संगति में अपना समय व्यतीत करतीं। उनके इस प्रकार के आचरणों से रुष्ट होकर उनके देवर ने उन्हें मारने के अनेक प्रयत्न किए, परंतु प्रभु-भक्ति में लीन रहने वाली मीरा का बाल भी बांका न हुआ। अपने परिवार के बुरे व्यवहार से तंग आकर मीरा वृंदावन और फिर द्वारिका चली गई थी। वहीं उन्होंने अपनी देह त्याग दी थी। उनकी मृत्यु सन् 1573 ई० में मानी जाती है।
रचनाएँ-मीरा की निम्नलिखित रचनाएँ हैं-
नरसी जी का मायरा, गीत गोबिंद की टीका, राग गोविंद, राग सोरठा के पद आदि। विद्वानों के अनुसार, ‘पदावली’ ही उनकी प्रामाणिक रचना है।
मीरा प्रमुख रूप से भक्त गीतकार हैं। उनके पदों में भक्त हृदय की पुकार है। सरसता, मधुरता एवं मौलिकता की दृष्टि से उनके पद बेजोड़ हैं। माधुर्य भाव की भक्ति के कारण इनके काव्य में श्रृंगार रस के दोनों पक्षों संयोग एवं वियोग का सुंदर चित्रण हुआ है। इनके काव्य में प्रकृति-चित्रण के सुंदर चित्र भी मिलते हैं। वेदना-भाव के मिश्रण ने इन चित्रों को बहुत मार्मिक बना दिया है।
मीरा की भाषा में ब्रज और राजस्थानी शब्दों की प्रमुखता है लेकिन उसमें पंजाबी, गुजराती आदि के शब्दों का भी प्रयोग किया गया है। इनके काव्य में भावों को अधिक महत्त्व दिया गया है। इन्होंने भावों के अनुकूल सरल, सरस और भावपूर्ण शब्दों का प्रयोग किया है। राजस्थानी के शब्दों की प्रमुखता दिखाई देती है। राजस्थान के भक्तों में तो इनका स्थान सर्वोपरि है।
मीराबाई बाई के पद का सार
पाठ्य-पुस्तक में मीराबाई के दो पद संकलित हैं। पहले पद में कवयित्री ने नंदलाल, बालक कृष्ण की मनमोहक छवि को अपने नेत्रों में बसाने की कामना करते हुए उनकी सांवली सूरत, बड़ी-बड़ी आँखों, मोर के पंखों के मुकुट, मकर की आकृति के कुंडलों तथा माथे पर लगे तिलक की प्रशंसा की है। उनके होंठों पर मधुर स्वर उत्पन्न करने वाली मुरली तथा हृदय पर वैजंती माला विराजमान है। उनकी कमर पर छोटी-छोटी घंटियाँ तथा पैरों में घुघरू बंधे हैं, जिनका मधुर स्वर वातावरण में गूंज रहा है। मीरा के प्रभु का यह रूप संतों को सुख देने वाला तथा भक्तों की रक्षा करने वाला है।
दूसरे पद में कवयित्री श्रीकृष्ण को अपना सर्वस्व मानते हुए कहती हैं कि उसका उनके अतिरिक्त किसी अन्य से कोई संबंध नहीं है। मोर मुकुट धारी ही उसके स्वामी हैं। उसने कुल की मर्यादा का त्याग कर दिया है, इसलिए अब उसे किसी की कोई चिंता नहीं है। वह लोकलाज छोड़कर संतों के साथ विचरण कर रही है। उसने अपने आँसुओं से कृष्ण प्रेम की बेल को बोया है, जो अब खूब फैल गई है, जिस पर आनंद रूपी फल लग गए हैं। वह प्रभ भक्ति से प्रसन्न है तथा सांसारिक माया-मोह के बंधनों को देखकर रोती है। वह अपने आराध्य से अपनी मुक्ति की प्रार्थना करती है।
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