“Ashad Ka Hriday” can be translated to English as “The Heart of Ashad” or “Ashad’s Heart.” Ashad Ka Hriday is a heartfelt and poignant story that touches upon the complexities of human emotions. Written by renowned author, the story revolves around the protagonist, Ashad, and his journey of self-discovery and love. This captivating tale beautifully captures the essence of the human heart, delving into themes of passion, longing, and the pursuit of happiness. Read More Class 10 Hindi Summaries.
अशिक्षित का हृदय Summary In Hindi
अशिक्षित का हृदय लेखक परिचय
बहुमुखी प्रतिभा संपन्न श्री विश्वंभरनाथ शर्मा ‘कौशिक’ का जन्म सन् 1890 ई० में तत्कालीन पंजाब प्रांत के अंबाला जिले में हुआ था। इन्हें हिंदी, उर्दू, पंजाबी, अंग्रेज़ी भाषाओं का अच्छा ज्ञान था। इन्होंने भारतीय संस्कृति, धर्म, साधना का गहनता से अध्ययन किया था। इन्होंने कानपुर से मैट्रिक की शिक्षा प्राप्त की थी। संगीत तथा फोटोग्राफी में भी इनकी अत्यधिक रुचि थी। इनका देहावसान सन् 1944 ई० में हो गया था। कौशिक जी मूलरूप से कहानीकार थे। उन्होंने आदर्शवादिता और भावुकता से परिपूर्ण कहानियां लिखी थीं।
रचनाएँ – विश्वंभरनाथ शर्मा ‘कौशिक’ एक महान् साहित्य सेवक थे। उन्होंने अपनी लेखनी के माध्यम से अनेक साहित्यिक विधाओं का विकास किया। इनकी प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं-
कहानी संग्रह – मणिमाला, चित्रशाला
पत्र-संग्रह – दूबे जी की डायरी
उपन्यास – माँ, भिखारिणी।
विश्वंभरनाथ शर्मा आधुनिक साहित्य के एक श्रेष्ठ साहित्यकार थे। हिंदी भाषा के गद्य के क्षेत्र में उनका योगदान महान् है। इनका गद्य-साहित्य समाज केंद्रित है। इन्होंने अपने गद्य-साहित्य में समकालीन समाज का यथार्थ चित्रण किया। इन्होंने समाज के सुख-दुःख, गरीबी, शोषण आदि का यथार्थ वर्णन किया है। इनका सारा जीवन साहित्य-सेवा में तथा समाज-उद्धार करने में लगा रहा।
अशिक्षित का हृदय कहानी का सार
‘अशिक्षित का हृदय’ कहानी के लेखक श्री विश्वंभरनाथ शर्मा ‘कौशिक’ हैं। इस कहानी में लेखक ने एक अशिक्षित ग्रामीण के हृदय में निहित सच्चे प्रेम की झलक प्रस्तुत की है।
मनोहर सिंह नाम का एक ग्रामीण व्यक्ति था। उसने अपना यौवन काल फौज में व्यतीत किया था। अब वह अकेला रहता था। गाँव में दूर के एक-दो रिश्तेदार अवश्य थे, उन्हीं के यहां अपना भोजन बना लेता था। उसका कहीं आनाजाना नहीं था। अपने टूटे-फूटे मकान में रहता था और ईश्वर भजन किया करता था।
एक वर्ष पूर्व उसके मन में खेती कराने की इच्छा पैदा हुई थी। अतः उसने ठाकुर शिवपाल सिंह से कुछ भूमि लगान पर लेकर खेती कराई भी थी पर वर्षा न होने के कारण कुछ पैदावार न हुई। ठाकुर शिवपाल सिंह को लगान न दिया जा सका। उसे जो सरकार से पेंशन मिलती थी, वह उस पर खर्च हो जाती थी। अतः कुछ बचत न थी।
ठाकुर शिवपाल सिंह ऋण की रकम वापस लेने में कुछ कठोर हो जाया करता था। अंत में जब ठाकुर साहब को लगान न मिला तो उन्होंने मनोहर सिंह का नीम का पेड़ गिरवी रख लिया। मनोहर सिंह की झोंपड़ी के द्वार पर लगा यह पेड़ बहुत पुराना था। सबसे बड़ी बात तो यह थी कि इसे मनोहर सिंह के पिता ने लगवाया था।
एक दिन ठाकुर शिवपाल सिंह अपना ऋण वापस लेने के लिये मनोहर सिंह के द्वार पर आ पहुँचा। मनोहर सिंह ने विनम्र भाव से कहा कि अभी रुपये उसके पास नहीं थे। फिर रुपयों को कोई खतरा नहीं था क्योंकि उसका नीम का पेड़ गिरवी रखा हुआ था। ठाकुर शिवपाल सिंह ने कहा कि डेढ़ साल का ब्याज मिलाकर कुल 25 रुपये बनते थे। वे रुपये अदा कर दो अन्यथा इसके बदले पेड़ कटवा लिया जायेगा। मनोहर सिंह घबराकर बोला कि पेड़ को कटवाया न जाए। ऋण अदा न होने पर वह पेड़ ठाकुर शिवपाल सिंह का हो जाएगा। ठाकुर ने मनोहर सिंह की बात नहीं मानी और कहा-“हमारा जो जी चाहेगा करेंगे। तुम्हें फिर कुछ कहने का अधिकार नहीं रहेगा।”
अशिक्षित का हृदय कहानी Summary
मनोहर सिंह को रुपया अदा करने के लिए एक सप्ताह का समय दिया गया था। उसने रुपया चुका देने की हर संभव कोशिश की। बहुत दौड़-धूप की पर किसी ने भी रुपए नहीं दिए। वह पेड़ की शीतल छाया में लेटा हुआ पेड़ के उपकारों का स्मरण कर रहा था। वह पेड़ उसे बहुत प्रिय था। उसके कट जाने की कल्पना मात्र से उसका हृदय काँप उठता था।
वह उठकर बैठ गया और वृक्ष की ओर मुँह करके बोला-“यदि संसार में किसी ने मेरा साथ दिया है तो तूने। यदि संसार में किसी ने नि:स्वार्थ भाव से मेरी सेवा की है तो तूने। ……. पिता कहा करते थे-बेटा मनोहर, यह मेरे हाथ की निशानी है। इससे जब-जब तुझे और तेरे बाल-बच्चों को सुख पहुँचेगा तब-तब मेरी याद आएगी। पिता का देहांत हुए चालीस वर्ष व्यतीत हो गए……. इस संसार में तू ही एक पुराना मित्र है। तुझे वह दुष्ट काटना चाहता है।” हाँ, काटेगा क्यों नहीं। देखू कैसे काटता है।”
मनोहर सिंह अपने विचारों में डूबा हुआ बड़बड़ा ही रहा था कि उसी समय तेजा नाम का एक पंद्रह-सोलह वर्ष का लड़का आया। उसने आते ही मनोहर से पूछा कि वह किससे बातें कर रहा था। मनोहर सिंह ने तेजा को आप बीती कह सुनाई। तेजा बालक था इसलिए वह मनोहर सिंह की गंभीरता का अनुमान न लगा सका लेकिन जब उसे पेड़ की कहानी तथा उसके महत्त्व का पता चला तो उसके हृदय में मनोहर सिंह के प्रति सहानुभूति जागी। तेजा सिंह के लिए 25 रुपये की रकम बहुत बड़ी थी। दस-पाँच रुपये की बात होती तो वह कहीं से ला देता। मनोहर सिंह तेजा सिंह की सहानुभूति पाकर प्रभावित हो गया। उसने उसे आशीर्वाद दिया।
एक सप्ताह बीत गया। मनोहर सिंह रुपये अदा नहीं कर सका। आठवें दिन दोपहर के समय शिवपाल सिंह ने मनोहर सिंह को बुलवाया। मनोहर सिंह तलवार बग़ल में दबाए अकड़ता हुआ ठाकुर साहब के सामने आ पहुँचा। ठाकुर साहब ने कहा कि अब पेड़ उनका था। अतः उसे कटवाने का अधिकार भी उनका था। मनोहर सिंह पेड़ न कटवाने का अनुरोध करता रहा। पर ठाकुर साहब के कान पर तक न रेंगी। मनोहर सिंह भी आकर अपने पेड़ के नीचे चारपाई बिछाकर बैठ गया।
दोपहर ढलने पर दो-चार आदमी कुल्हाड़ियाँ लेकर आते दिखाई दिए। मनोहर सिंह ने तलवार निकाल ली और कहा-“संभल कर आगे बढ़ना। जो किसी ने भी पेड़ में कुल्हाड़ी लगाई, तो उसकी जान और अपनी जान एक कर दूंगा।” मज़दूर भाग खड़े हुए। शिवपाल सिंह घटना से परिचित होते ही दो लठबंद आदमियों तथा मज़दूरों के साथ वहाँ पहुँचे। मनोहर सिंह तथा ठाकुर शिवपाल सिंह में वाद-विवाद हुआ। मनोहर सिंह ने क्रोध से चुनौती भरे स्वर में कहा”ठाकुर साहब, जो आप सच्चे ठाकुर हैं, तो इस पेड़ को कटवा ले, जो मैं ठाकुर हूँगा, तो इसे न कटने दूंगा।” इसी समय तेजा सिंह ने मनोहर सिंह को रुपये लाकर दिये।
अब ठाकुर साहब पेड़ कटवाने की जिद्द पूरी करना चाहते थे। अतः उन्होंने रुपये लेने से इन्कार कर दिया। इसी बीच गाँव के लोग इकट्ठे हो गए। गाँव के लोगों के साथ तेजा सिंह का पिता भी आया था। जब उसे पता चला कि रुपये तेजा सिंह ने दिए थे और वह ये रुपये चुराकर लाया था। मनोहर सिंह ने रुपये लौटा दिए। शिवपाल सिंह को पता लग गया था कि मनोहर सिंह रुपये नहीं दे सकता। अतः उन्होंने कहा कि अगर मनोहर सिंह रुपए अभी दे दे तो वह स्वीकार कर लेंगे।
तेजा सिंह आगे बढ़ा और उसने अपनी अंगूठी ठाकुर साहब की तरफ बढ़ाते हुए कहा कि ‘यह एक तोले की है। इस पर बापू का कोई अधिकार नहीं क्योंकि यह मुझे अपनी नानी से प्राप्त हुई है।’ तेजा सिंह की इस भावना को देखकर उसके पिता आगे बढ़े और ठाकुर साहब को पच्चीस रुपये दे दिये।
ठाकुर साहब के चले जाने के बाद मनोहर सिंह ने तेजा को छाती से लगा लिया और सबके सामने कहा-भाइयो। मैं तुम सबके सामने यह पेड़ तेजा सिंह को देता हूँ। तेजा को छोड़कर इस पर किसी का कोई अधिकार न रहेगा।
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