“फीचर लेखन” एक प्रकार का पत्रकारिता है, जो किसी विशेष विषय या व्यक्ति पर गहराई से जानकारी प्रदान करता है। फीचर लेखन में तथ्यों के साथ-साथ भावनाओं और विचारों को भी व्यक्त किया जाता है। फीचर लेखन का उद्देश्य पाठकों को किसी विषय या व्यक्ति के बारे में अधिक जानकारी प्रदान करना और उन्हें सोचने पर मजबूर करना है।
फीचर लेखन लेखक का नाम :
डॉ. बीना शर्मा। (जन्म 20 अक्तूबर 1959.)
फीचर लेखन प्रमुख कृतियाँ :
‘हिंदी शिक्षण – अंतर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य’, ‘भारतीय सांस्कृतिक प्रतीक’ आदि।
फीचर लेखन विशेषता :
डॉ. बीना का लेखन शिक्षा क्षेत्र और भारतीय संस्कृति से प्रेरित है। स्त्री विमर्श और समसामयिक विषयों पर आपका विशेष लेखन। आपका साहित्य भारतीय संस्कारों और जीवन मूल्यों के प्रति आग्रही है।
फीचर लेखन विषय प्रवेश :
आज के दौर में फीचर लेखन पत्रकारिता क्षेत्र का आधार स्तंभ बन गया है। फीचर का मुख्य कार्य पाठक के सम्मुख किसी विषय का सजीव वर्णन करना होता है। प्रस्तुत पाठ में लेखिका फीचर लेखन का स्वरूप, उसकी विशेषताएँ, प्रकार आदि पर प्रकाश डालते हुए इस तथ्य को उद्भासित कर रही है कि फीचर लेखन जहाँ एक ओर समाज के दर्पण के रूप में कार्य कर सकता है, वहीं यह आजीविका का स्रोत भी बन सकता है।
फीचर लेखन पाठ का सार
स्नेहा एक पत्रकार है। आज वह और उसका पूरा परिवार आनंद और गर्व की भावना से भरा है। पत्रकारिता के क्षेत्र में फीचर लेखन के लिए दिए जाने वाले ‘सर्वश्रेष्ठ फीचर लेखन’ के लिए स्नेहा को राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। आज उसके परिवार द्वारा एक पार्टी का आयोजन किया गया है। स्नेहा के पति, उसके सास-ससुर, पुत्री प्रिया और पुत्र नैतिक उसे बधाई दे रहे हैं। स्नेहा की आँखों में खुशी के आँसू हैं।
स्नेहा अतीत में खो जाती है। बी. ए. कर लेने के बाद पिता द्वारा भविष्य के बारे में पूछने पर वह पत्रकारिता का कोर्स करने है की इच्छा प्रकट करती है, जिसे माता द्वारा भी समर्थन मिलता है। स्नेहा पत्रकारिता का कोर्स ज्वाइन कर लेती है। पत्रकारिता की कक्षा का प्रथम दिवस – पहले लेक्चर में प्रोफेसर ने पत्रकारिता पाठ्यक्रम का पहला पेपर पढ़ाना शुरु किया। विषय था – फीचर लेखन। उन्होंने फीचर लेखन की विभिन्न परिभाषाओं को समझाते हुए कहा – फीचर लेखन के क्षेत्र में चर्चित जेम्स डेविस कहते हैं – ‘फीचर समाचारों को नया आयाम देता है, उनका परीक्षण करता है तथा उन पर नया प्रकाश डालता है।’
स्नेहा की फीचर लेखन में विशेष रुचि थी। उसके द्वारा प्रसिद्ध फीचर लेखक पी. डी. टंडन का उल्लेख करने पर प्रोफेसर ने बताया कि पी. डी. टंडन के अनुसार ‘फीचर किसी गद्य गीत की तरह होता है, जो बहुत लंबा, नीरस और गंभीर नहीं होना चाहिए। इससे पाठक बोर हो जाते हैं और ऐसे फीचर कोई पढ़ना नहीं चाहता। फीचर किसी विषय का मनोरंजक शैली में विस्तृत विवेचन है।’
इन परिभाषाओं के द्वारा स्नेहा अच्छी तरह समझ गई कि फीचर समाचारपत्र का प्राण तत्त्व होता है। पाठक की प्यास बुझाने, घटना की मनोरंजनात्मक अभिव्यक्ति की कला का नाम फीचर है। पत्रकारिता कोर्स के बीतते दिन-महीने, फीचर लेखन के संबंध में सुने हुए लेक्चर्स, प्रोफेसरों के साथ की गई चर्चाएँ, अध्ययन, परीक्षा, फीचर लेखन का प्रारंभ फीचर लेखन और आज का दिन। फीचर लेखन की सिद्धहस्त लेखिका बनना ही स्नेहा का एकमात्र सपना था।
स्नेहा को याद आ रहा है वह दिन जब उसे पत्रकारिता कोर्स में फीचर लेखन पर व्याख्यान देने के लिए बुलाया गया था। आज उसे अपना परिश्रम सार्थक होता नजर आ रहा था। रोचक प्रसंगों के साथ स्नेहा फीचर लेखन की विशेषताएँ बताने लगी – अच्छा फीचर नवीनतम जानकारी से परिपूर्ण होता है।
किसी घटना की सत्यता, तथ्यता फीचर का मुख्य तत्त्व है। फीचर लेखन में राष्ट्रीय स्तर के तथा अन्य महत्त्वपूर्ण विषयों का समावेश होना चाहिए क्योंकि समाचारपत्र दूर-दूर तक जाते हैं। साथ ही फीचर का विषय समसामयिक होना चाहिए।
फीचर लेखन में भावप्रधानता होनी चाहिए, क्योंकि नीरस फीचर कोई भी नहीं पढ़ना चाहता। फीचर से संबंधित तथ्यों का आधार दिया जाना चाहिए। विश्वसनीयता के लिए फीचर में तार्किकता आवश्यक है। तार्किकता के बिना फीचर अविश्वसनीय बन जाता है। फीचर में विषय की नवीनता होना आवश्यक है क्योंकि उसके अभाव में फीचर अपठनीय हो जाता है। फीचर में किसी व्यक्ति अथवा घटना विशेष का उदाहरण दिया गया हो तो उसकी संक्षिप्त जानकारी भी देनी चाहिए।
फीचर लेखन करते समय लेखक को पाठक की मानसिक योग्यता और शैक्षिक पृष्ठभूमि को ध्यान में रखना चाहिए। प्रसिद्ध व्यक्तियों के कथनों, उद्धरणों, लोकोक्तियों और मुहावरों का प्रयोग फीचर में चार चाँद लगा देता है। फीचर लेखक को निष्पक्ष रूप से अपना मत व्यक्त करना चाहिए तभी पाठक उसके विचारों से सहमत हो सकेगा। फीचर लेखन में शब्द चयन अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। लेखन की भाषा सहज, संप्रेषणीयता से परिपूर्ण होनी चाहिए। फीचर के विषयानुकूल चित्रों, कार्टूनों अथवा फोटो का उपयोग किया जाए तो फीचर अधिक प्रभावशाली बन जाता है।
एक विद्यार्थी के पूछने पर स्नेहा बताती है कि फीचर किसी विशेष घटना, व्यक्ति, जीव-जंतु, तीज-त्योहार, दिन, स्थान, प्रकृतिपरिवेश से संबंधित व्यक्तिगत अनुभूतियों पर आधारित आलेख होता है। इस आलेख को कल्पनाशीलता, सृजनात्मक कौशल के साथ मनोरंजक और आकर्षक शैली में प्रस्तुत किया जाता है। फीचर अनेक प्रकार के हो सकते हैं।
फीचर लेखन मुख्य रूप से –
व्यक्तिपरक फीचर
सूचनात्मक फीचर
विवरणात्मक फीचर
विश्लेषणात्मक फीचर
साक्षात्कार
विज्ञापन फीचर
स्नेहा ने आगे फीचर लेखन करते समय बरती जाने वाली सावधानियों के बारे में बताया :
फीचर लेखन में आरोप-प्रत्यारोप करने से बचना चाहिए।
फीचर लेखन में क्लिष्ट और आलंकारिक भाषा का प्रयोग नहीं करना चाहिए।
फीचर लेखन में झूठे तथ्यात्मक आँकड़े, प्रसंग अथवा घटनाओं का उल्लेख करना उचित नहीं है।
फीचर अति नाटकीयता से परिपूर्ण नहीं होना चाहिए।
फीचर लेखन में लेखक को अति कल्पनाओं और हवाई बातं के प्रयोग से बचना चाहिए।
इन सभी सावधानियों को ध्यान रखेंगे तो फीचर लेखन अधिकाधिक विश्वसनीय और प्रभावी बन सकता है।
फीचर लेखन की प्रक्रिया पर प्रकाश डालते हुए स्नेहा ने बताया कि फीचर लेखन के मुख्य तीन अंग हैं :
विषय का चयन : फीचर लेखन में विषय का चयन करते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि विषय रोचक, ज्ञानवर्धक और उत्प्रेरित करने वाला हो। अतः फीचर का विषय समयानुकूल और समसामयिक होना चाहिए। विषय जिज्ञासा उत्पन्न करने वाला हो।
सामग्री का संकलन : फीचर लेखन में विषय संबंधी सामग्री का संकलन करना महत्त्वपूर्ण अंग है। उचित जानकारी और अनुभव के अभाव में लिखा गया फीचर नीरस सिद्ध हो सकता है। विषय से संबंधित उपलब्ध पुस्तकों, पत्र-पत्रिकाओं से सामग्री जुटाने के अलावा बहुत-सी सामग्री लोगों से मिलकर, कई स्थानों पर जाकर जुटानी पड़ती है।
फीचर योजना : फीचर लिखने से पहले फीचर का एक योजनाबद्ध ढाँचा बनाना चाहिए।
एक अन्य विद्यार्थी की जिज्ञासा शांत करते हुए स्नेहा ने बताया – निम्न चार सोपानों अथवा चरणों के आधार पर फीचर लिखा जाता है :
प्रस्तावना : प्रस्तावना में फीचर के विषय का संक्षिप्त परिचय होता है। यह परिचय आकर्षक और विषयानुकूल होना चाहिए। इससे पाठकों के मन में फीचर पढ़ने की जिज्ञासा जाग्रत होती है और पाठक अंत तक फीचर से जुड़ा रहता है।
विवरण अथवा मुख्य कलेवर : फीचर में विवरण का महत्त्वपूर्ण स्थान है। फीचर में लेखक स्वयं के अनुभव, लोगों से प्राप्त जानकारी और विषय की क्रमबद्धता, रोचकता के साथसाथ संतुलित तथा आकर्षक शब्दों में पिरोकर उसे पाठकों के सम्मुख रखता है जिससे फीचर पढ़ने वाले को ज्ञान और अनुभव से संपन्न कर दे।
उपसंहार : यह अनुच्छेद संपूर्ण फीचर का सार अथवा निचोड़ होता है। इसमें फीचर लेखक फीचर का निष्कर्ष भी प्रस्तुत कर सकता है अथवा कुछ अनुत्तरित प्रश्न पाठकों के ऊपर भी छोड़ सकता है। उपसंहार ऐसा होना चाहिए जिससे पाठक को विषय से संबंधित ज्ञान भी मिल जाए और उसकी जिज्ञासा भी बनी रहे।
शीर्षक : विषय का औचित्यपूर्ण शीर्षक फीचर की आत्मा है। शीर्षक संक्षिप्त, रोचक और जिज्ञासावर्धक होना चाहिए। नवीनता, आकर्षकता और ज्ञानवृद्धि उत्तम शीर्षक के गुण हैं।
Conclusion
फीचर लेखन एक चुनौतीपूर्ण कार्य है, लेकिन यह एक ऐसा कार्य भी है, जो पाठकों को किसी विषय या व्यक्ति के बारे में अधिक जानकारी प्रदान कर सकता है और उन्हें सोचने पर मजबूर कर सकता है। फीचर लेखन में तथ्यों के साथ-साथ भावनाओं और विचारों को भी व्यक्त किया जाता है, जिससे पाठकों को विषय या व्यक्ति के बारे में अधिक गहराई से समझने में मदद मिलती है।
“Prerana” is a Sanskrit word that can be translated to “inspiration” or “motivation” in English. It is often used to describe the source of inspiration or the act of motivating oneself or others. “Prerana” refers to the concept of inspiration or motivation in various contexts, including personal development, education, and creativity.
‘प्रेरणा’ कहानी मुंशी प्रेमचंद द्वारा लिखित है। इस कहानी में मानवीय स्वभाव की विचित्रता और अनिश्चिता का वर्णन किया गया है। मनुष्य पर जब कोई दायित्व आ जाता है। तब उसके अन्दर से एक ऐसी प्रेरणा प्रस्फुटित होती है जो उसके जीवन की दिशा बदल देती है।
कथावाचक एक स्कूल में अध्यापक थे। उस स्कूल में सूर्यप्रकाश नाम का एक लड़का बड़ा उदंड था। उसने खुदाई फ़ौजदारों की एक फ़ौज बना ली थी और उसके आतंक से वे सारी पाठशाला पर शासन किया करता था। मुख्याध्यापक से लेकर स्कूल के अर्दली तथा चपड़ासी तक उससे थर-थर काँपते थे। एक दिन तो उसने कमाल ही कर दिया। स्कूल में इंस्पैक्टर साहब आने वाले थे। मुख्याध्यापक ने सब लड़कों को आधा घण्टा पहले आने का आदेश दिया। किन्तु ग्यारह बजे तक कोई भी छात्र स्कूल नहीं आया। सूर्यप्रकाश ने उन सबको रोक रखा था, पर पूछने पर किसी ने भी उसका नाम नहीं लिया। परीक्षा में वह कथावाचक की असाधारण देखभाल के कारण अच्छे अंक प्राप्त कर सका। उसकी शरारतें देखकर लेखक को लगा कि एक दिन वह जेल जाएगा या पागलखाने में।
लेखक का उस स्कूल से तबादला हो गया। फिर वह इंग्लैण्ड पढ़ने के लिए चला गया। तीन साल बाद वहाँ से लौटा तो एक कॉलेज का प्रिंसीपल बना दिया गया। उसका शिक्षा प्रणाली को लेकर मंत्री महोदय से झगड़ा हो गया। परिणामस्वरूप उन्होंने उसे पदच्युत कर दिया। तब लेखक ने किसी गाँव में आकर एक छोटी-सी पाठशाला खोली। एक दिन वह अपनी कक्षा को पढ़ा रहा था कि पाठशाला के पास जिले के डिप्टी कमिश्नर की कार आकर रुकी। कथावाचक ने झेंपते हुए उनसे हाथ मिलाने के लिए हाथ आगे बढ़ाया तो डिप्टी कमिश्नर ने उसके पैरों की ओर झुककर अपना सिर उन पर रख दिया। डिप्टी कमिश्नर ने बताया कि उसका नाम सूर्यप्रकाश है। उसने बताया कि आज वह जो कुछ है उन्हीं के आशीर्वाद का परिणाम है।
सूर्यप्रकाश ने अपनी राम कहानी सुनाते हुए कहा कि किस तरह उसने अपने ऊपर अपने छोटे भाई की ज़िम्मेदारी ली और शरारती लड़के से एक कर्मठ और जिम्मेवार व्यक्ति बन गया। उसने अपने छोटे भाई मोहन के बीमार होने पर बहुत सेवा की, किन्तु उसे बचा न सका। छोटे भाई की पवित्र आत्मा ही उसकी प्रेरणा बन गई और वह कठिन से कठिन परीक्षाओं में भी सफल होता गया। उस दिन से लेखक कई बार सूर्यप्रकाश से मिले। वह अब भी मोहन को अपना इष्टदेव समझता है। मानव प्रकृति का यह एक ऐसा रहस्य है जिसे लेखक आज तक नहीं समझ पाया है।
“कनुप्रिया” हिन्दी साहित्य के आधुनिक काल की एक प्रसिद्ध कृति है। यह एक प्रेम कथा है, जिसमें राधा और कृष्ण के प्रेम को एक नये दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया गया है। इस कृति में राधा की नायिका के रूप में एक नई पहचान स्थापित की गई है। राधा को एक मात्र प्रेमिका के रूप में नहीं, बल्कि एक स्वतंत्र और आत्मनिर्भर नारी के रूप में चित्रित किया गया है।
पल्लवन लेखक का नाम :
डॉ. दयानंद तिवारी। (जन्म 1 अक्तूबर 1962.)
पल्लवन प्रमुख कृतियाँ :
‘साहित्य का समाजशास्त्र’, ‘समकालीन हिंदी कहानी – विविध विमर्श’, ‘चित्रा मुद्गल के कथासाहित्य का समाजशास्त्र’, ‘हिंदी व्याकरण’, “हिंदी कहानी के विविध आयाम’ आदि। विशेषता समाजशास्त्री तथा प्रतिबद्ध साहित्यकार। महाविद्यालयीन समस्याओं के प्रति जागरूक। संप्रेषणीय एवं प्रभावोत्पादक भाषा। विधा : एकांकी। यह नाटक का एक प्रकार है।
पल्लवन विषय प्रवेश :
साहित्य शास्त्र में पल्लवन लेखन उत्तम साहित्यकार का लक्षण माना जाता है। पल्लवन अर्थात किसी लोकोक्ति, उद्धरण, सूक्ति आदि का विस्तृत वर्णन। प्रस्तुत पाठ में पल्लवन लेखन के विविध अंगों और नियमों को स्पष्ट करते हुए व्यावहारिक हिंदी के विभिन्न क्षेत्रों में उसकी उपयोगिता पर प्रकाश डाला गया है।
पल्लवन पाठ का सार
बारहवीं कक्षा की फाइनल परीक्षाएँ निकट हैं। हिंदी के अध्यापक विद्यार्थियों को पाठ्यक्रम का पुनरावलोकन करा रहे हैं। एक विद्यार्थिनी के पूछने पर वह पल्लवन के विषय में विस्तार से समझाते हैं।
पल्लवन का अर्थ है फैलाव या विस्तार। जब किसी शब्द, सूक्ति, उद्धरण, लोकोक्ति गद्य, काव्य पंक्ति आदि का अर्थ स्पष्ट करते हुए दृष्टांतों, उदाहरणों द्वारा उसका विस्तार किया जाता है, तो उसे पल्लवन कहा जाता है। विस्तार शब्द के कारण पल्लवन को निबंध नहीं समझा जाना चाहिए।
निबंध और पल्लवन में अंतर होता है। जहाँ निबंध में किसी विचार को विस्तार से लिखने के लिए कल्पना, प्रतिभा और मौलिकता का सहारा लिया जाता है, वहीं पल्लवन में विषय का विस्तार एक निश्चित सीमा के अंतर्गत ही किया जाता है। पल्लवन की कुछ विशेषताएँ और नियम होते हैं।
पल्लवन के लिए भाषा के ज्ञान के साथ-साथ विश्लेषण, संश्लेषण, तार्किक क्षमता, अभिव्यक्तिगत कौशल की आवश्यकता भी होती है। पल्लवन में भाव विस्तार के साथ चिंतन का भी स्थान होता है। प्रथम दृष्टि में किसी सूक्ति आदि का सामान्य अर्थ ही समझ आता है। परंतु जैसे-जैसे उस सूक्ति विशेष को ध्यानपूर्वक और बार-बार पढ़ते हैं, तो उसमें निहित गूढ अर्थ स्पष्ट होने लगता है।
पल्लवन की आवश्यकता पर प्रकाश डालते हुए अध्यापक स्पष्ट करते हैं कि वैज्ञानिक युग में पलने-बढ़ने के कारण आज की पीढ़ी लेखकों, कवियों, विचारकों आदि के मौलिक विचारों को समझने में अक्षम रहती है। ऐसे समय में पल्लवन हमारी सहायता करता है।
पल्लवन व्यक्तित्त्व निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। शारीरिक विकास के साथ-साथ मनुष्य का बौद्धिक विकास भी आवश्यक होता है। पल्लवन का महत्त्व केवल शिक्षा तथा साहित्य में ही नहीं है, बल्कि उत्कृष्ट वक्ता, पत्रकार, प्रोफेसर, नेता, वकील आदि को भी इस कला का ज्ञान होना चाहिए।
इतना ही नहीं, कहानी लेखन, संवाद लेखन, विज्ञापन, समाचार, राजनीति के साथ-साथ अन्य अनेक व्यवसायों में भी पल्लवन का प्रयोग होता है।
पल्लवन की विशेषताओं को इस प्रकार लिखा जा सकता है:
कल्पनाशीलता
मौलिकता
सर्जनात्मकता
प्रवाहमयता
भाषा-शैली
शब्द चयन
सहजता
स्पष्टता
क्रमबद्धता।
पल्लवन की दो शैलियाँ प्रचलित हैं –
इसमें प्रथम वाक्य से ही लेखक विषय पर आ जाता है। इसमें लंबी-चौड़ी भूमिका बनाने की आवश्यकता नहीं होती। प्रारंभ से ही रोचक, उत्सुकतापूर्ण शृंखला में बँधे वाक्य लिखे जाते हैं।
कुछ विद्वान मानते हैं कि प्रारंभ के दो-तीन वाक्यों में भूमिका बनानी चाहिए। फिर दस-बारह वाक्यों में विषय का विस्तार करे तथा अंत में दोतीन वाक्यों में समाप्ति करें।
पल्लवन की प्रक्रिया के निम्नलिखित सोपान हैं :
विषय को भली-भाँति पढ़ना, उसके भाव को समझना, उस पर ध्यान केंद्रित करना, अर्थ स्पष्ट होने पर एक बार पुनः विचार करना।
विषय की संक्षिप्त रूपरेखा बनाना, उसके पक्ष-विपक्ष में सोचना, फिर विपक्षी तर्कों को काटने के लिए तर्कसंगत विचार एकत्रित करना। उसके बाद असंगत विचारों को हटाकर तर्कसंगत विचारों को संयोजित करना।
शब्द सीमा के अनुसार सरल और स्पष्ट भाषा में पल्लवन करना। लिखित रूप को पुनः ध्यानपूर्वक पढ़ना। पल्लवन विस्तार में और सदैव अन्य पुरुष में लिखा जाता है। पल्लवन में लेखक के मनोभावों का ही विस्तार और विश्लेषण किया जाता है।
पल्लवन के बिंदु (पाठ्यपुस्तक पृष्ठ क्र. 84)
पल्लवन में सूक्ति, उक्ति, पंक्ति या काव्यांश का विस्तार किया जाता है।
पल्लवन के लिए दिए गए वाक्य सामान्य अर्थ वाले नहीं होते।
पल्लवन में अन्य उक्ति का विस्तार नहीं जोड़ना चाहिए।
क्लिष्ट शब्दों का प्रयोग न करें।
पल्लवन करते समय अर्थों, भावों को एकसूत्र में बाँधना आवश्यक है।
विस्तार प्रक्रिया अलग-अलग दृष्टिकोण से प्रस्तुत करनी चाहिए।
पल्लवन में भावों-विचारों को अभिव्यक्त करने का उचित क्रम हो।
वाक्य छोटे-छोटे हों जो अर्थ स्पष्ट करें।
भाषा का सरल, स्पष्ट और मौलिक होना अनिवार्य है।
पल्लवन में आलोचना तथा टीका-टिप्पणी के लिए स्थान नहीं होता।
पल्लवन
(1) नर हो, न निराश करो मन को।
मनुष्य संसार का सबसे अधिक गुणवान तथा बुद्धिशील प्राणी है। वह अपने बुद्धि कौशल तथा कल्पनाशीलता के बल पर एक से एक महान कार्य करता रहा है। शांति, सद्भाव, समानता की स्थापना के लिए मनुष्य सदैव प्रयासरत रहा, क्योंकि मनुष्य विधाता की सर्वोत्कृष्ट और सर्वाधिक गुणसंपन्न कृति है।
अतः उसे अपने जीवन में किसी भी परिस्थिति में निराश नहीं होना चाहिए। जीवन में सुख और दुख, लाभ और हानि, सफलता और असफलता उसी प्रकार हैं, जैसे सिक्के के दो पहलू। संसार में ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं है, जिसने अपने पूरे जीवन में कभी असफलता का मुँह न देखा हो।
हमें असफलताओं से घबराकर, हताश होकर नहीं बैठ जाना चाहिए। अगर मन ही पराजित हो गया तो वह इस धरा को स्वर्ग समान कैसे बना पाएगा। मनुष्य का विवेक, उसका मनोबल ही तो है, जो उसे हर समय कर्मरत रहने की, श्रेष्ठ से श्रेष्ठतर करने की प्रेरणा दिया करता है।
(2) अविवेक आपदाओं का घर है।
विवेक, बुद्धि और ज्ञान मानव की बौद्धिक संपदा है। मनुष्य जब कोई निर्णय लेता है तो उसे ऐसी विवेक शक्ति की आवश्यकता होती है, जो उसे उचित और अनुचित के बीच का भेद बता सके। बिना अच्छी तरह विचारे किए गए कार्य कष्टदायक होते हैं।
किसी भी मनुष्य की सफलता का श्रेय उसके विवेक को ही जाता है। किस समय कौन-सा निर्णय लिया गया, इस पर हमारा भविष्य बहुत कुछ निर्भर करता है। हमें सोच-विचारकर ही कोई कार्य करना चाहिए। बिना विचार किया गया कार्य पश्चाताप का कारण बनता है।
इसलिए हमें जो भी कहना है, उस पर मनन करें, चिंतन करें। जो कुछ भी कहें, उसे सोच-समझकर विवेक की कसौटी पर कसकर ही कहें। अविवेकी मनुष्य मूर्खतापूर्ण कार्य करता है और अपने जीवन को आपत्तियों से भर लेता है। अगर कोई हितैषी उसे आपत्तियों से बचाते हुए उचित मार्ग पर चलने की परामर्श भी देता है, तो वह हितैषी उसे परम शत्रु प्रतीत होता है।
(3) सेवा तीर्थयात्रा से बढ़कर है।
सेवा से बढ़कर कोई दूसरा धर्म नहीं है। इस तथ्य को सभी जानते हैं। लेकिन लोग सेवा को भूलकर तीर्थयात्रा के लिए यह सोचकर निकल पड़ते हैं कि उन्हें मोक्ष मिलेगा। लोग भूल जाते हैं कि सेवा का भाव ही संपूर्ण मानवता को चिरकाल तक सुरक्षित कर सकेगा।
सेवा समाज के प्रति कृतज्ञ लोगों का आभूषण है। मानव सेवा एवं प्राणिमात्र की सेवा संपूर्ण तीर्थयात्राओं का फल देने वाली होती है। ऐसे व्यक्ति हमारे आस-पास ही मिल जाते हैं, जिन्हें सेवा की आवश्यकता होती है। तीर्थयात्रा करने का फल कब मिलेगा, कैसा होगा? कोई नहीं जानता।
परंतु सेवा सदा शुभ फल ही देती है। ‘सेवा करे सो मेवा पाए।’ अतः हमें सेवा धर्म अपनाना चाहिए।
(4) जो तोको काँटा बुवै, ताहि बोइ तू फूल।
संसार का यह चलन है कि आपके शुभचिंतक कम मिलेंगे, अहित करने वाले या बुरा सोचने वाले अधिक। ऐसे लोगों के प्रति क्रोध की भावना होना स्वाभाविक है। साधारण मनुष्य यही करते भी हैं, परंतु अहित करने वाले का हित सोचना, काँटे बिछाने वाले के लिए फूल बिछाना, मारने वाले को क्षमा करना महान मानवीय गुण है। हमारी संस्कृति प्रारंभ से ही अहिंसा प्रधान रही है। सबके प्रति सद्भावना रखना एक प्रकार की साधना है।
प्रकृति भी हमें यही शिक्षा प्रदान करती है। वृक्ष पत्थर मारने वाले को फल देते हैं। सरसों निष्पीड़न करने वालों को तेल देती है। पत्थर पर घिसा जाने के बाद चंदन सुगंध और शीतलता देता है। जब ये पदार्थ निर्जीव होते हुए भी अपकार करने वालों का उपकार करते हैं तो मनुष्य को तो विधाता ने स्वभाव से ही परोपकारी बनाया है।
शत्रु को मित्र बनाने, विरोधियों का हृदय परिवर्तन करके उन्हें अनुकूल बनाने का यही सर्वोत्तम और स्थायी उपचार है कि हम उत्पीड़क को क्षमा करें। जो हमारा बुरा करता है, उसका भला करें। उसके मार्ग के कँटक दूर करके वहाँ फूल बिछा दें। भला करने वाला, फूल बिछाने वाला सदा लाभ में ही रहता है। काँटा बिछाने वाला स्वयं ही उसमें उलझकर घायल हो सकता है। अतः हमें अपकार करने वाले का भला करना चाहिए।
Conclusion
पल्लवन एक महत्वपूर्ण साहित्यिक विधा है, जो हमें मूल भावों को अधिक गहराई से समझने में मदद करती है। पल्लवन के माध्यम से, हम मूल भावों को नए दृष्टिकोण से देख सकते हैं और उनसे नई व्याख्याएं निकाल सकते हैं।
Kavyakalaye kurichu chila nireekshanangal is a Malayalam essay by M. Govindan Nair. It was first published in 1950 in the literary magazine Mathrubhumi. The Summary explores the nature of poetry and its role in society.
In the introduction, Govindan Nair defines poetry as “the expression of human emotions and thoughts in a beautiful and evocative way.” He then goes on to discuss the different forms that poetry can take, including lyric poetry, narrative poetry, and dramatic poetry.
Kavyakalaye Kurichu Chila Nireekshanangal Summary in Malayalam
ജീവിത രേഖ : 1930 ജൂൺ 8- ന് കൊടുങ്ങല്ലൂരിൽ ജനനം. കൊടുങ്ങല്ലൂർ ബോയ്സ് ഹൈസ്കൂളിലും എറണാകുളം മഹാരാജാസിലും എറണാകുളം ലോ കോളേജിലും പഠിച്ചു. നിയമ പഠനം പൂർത്തിയാക്കിയില്ല. മദിരാശി സർവ്വകലാശാലയിൽ നിന്നും മലയാളത്തിൽ എം.എ. പൂർത്തിയാക്കി.
1952- ൽ ‘മദിരാശി ന്യ കോളേജിൽ അധ്യാപകനായി. 1959 – ൽ തിരുവനന്തപുരം യൂണിവേഴ്സിറ്റി കോളേജിൽ അധ്യാപകനായി. 1960- ൽ തലശ്ശേരി ബ്രണ്ണൻ കോളേജിൽ അധ്യാപകനായി. 1985 – ൽ വിരമിച്ചു. പ്രശസ്തനായ നിരൂപകൻ, വാമി, സാംസ്കാരിക പ്രവർത്തകൻ, 2007 ഒക്ടോബർ 27- ന് തൃശ്ശൂർ പ്രസ്സ് ക്ലബിൽ വാർത്താ സമ്മേളനം നടത്തിക്കൊണ്ടിരിക്കേ കുഴഞ്ഞു വീണു മരിച്ചു.
ആസ്വാദനം
കവിതയെ മനഃശാസ്ത്രപരമായ വീക്ഷണകോണിലൂടെ നോക്കിക്കാണുകയും, അതിസൂക്ഷ്മമായ വിശകലനങ്ങൾക്ക് വിധേയമാ ക്കുകയും ചെയ്ത നിരൂപകനായിരുന്നു എം.എൻ.വിജയൻ. ഫോയ്ഡ് മുതൽ ‘യുങ്ങ്’ വരെയുള്ള മനഃശാസ്ത്രകാരന്മാരെ അതിലേക്കായി അണിനിരത്താനും എം.എൻ.വിജയന് സാധിച്ചു.
അതുമാത്രമല്ല, ഈ പുതുമ നിറഞ്ഞ നിരൂ രീതിയെ മലയാള സാഹിത്യത്തിനു പരിചയപ്പെടുത്തി, അതിന്റെ മലയാളത്തിന്റെ പ്രശസ്തകാവ്യങ്ങളെ നിരൂപണം ചെയ്യുകയും ചെയ്ത അദ്ദേഹം. നവീനമായ ഇത്തരം സങ്കേതങ്ങളെ ജനകീ യമാക്കുന്നതിലും, വിജയൻ മാഷ് വിജയിച്ചു.
തന്റെ കർമ്മമണ്ഡലത്തിൽ ആഴത്തിലും, പരപ്പിലുമുള്ള അറിവും, സ്വയം നവീകരിക്കലും, എം.എൻ. വിജയന്റെ എറ്റവും വലിയ സവിശേഷതകളിലൊന്നായിരുന്നു. തന്റെ ആശയഗതി കളെ മുറുകെ പിടിക്കുകയും, അതിന്റെ പൂർത്തീകരണത്തിനായ് ഒത്തുതീർപ്പുകൾക്ക് വഴങ്ങാത്ത സ്ഥിരത പുലർത്തുകയും ചെയ്തു അദ്ദേഹം. ആശയഗതികളിലെ ഈ കാർക്കശ്യം അദ്ദേ ഹത്തിനു അനേകം ശത്രുക്കളെ സമ്പാദിച്ചു കൊടുത്തു. എന്നിട്ടും ഒടുവിലത്തെ ശ്വാസംവരെ
തന്റെ സിദ്ധാന്തങ്ങളെ വിശ ദീകരിച്ചും, വിശകലനം ചെയ്തുമാണ് അദ്ദേഹത്തിന്റെ ജീവിത ചക്രം അവസാനിച്ചത്. അഭിനയവേദിയിൽ വെച്ച് ജീവൻ വെടിയുക എന്നത് ഒരു നടൻ മഹാഭാഗ്യമായി കരുതുന്നതുപോലെ, പ്രസംഗവേദിയിൽ വെച്ച് ജീവൻ നഷ്ടപ്പെടുന്ന അപൂർവ്വം വാമി കളിൽ ഒരാളായി അദ്ദേഹം മാറി.
അവസാന ശ്വാസംവരെ ആശയവിനി നടത്തിക്കൊണ്ട്; ആ തലത്തിലൂടെ നോക്കുമ്പോൾ ഒരു കർമ്മയോഗിയുടെ ജീവിതം തന്നെയാണ് അദ്ദേഹം നയിച്ച തെന്ന് കണ്ടെത്താൻ കഴിയും. കാവ്യകലയെക്കുറിച്ചുള്ള ചില നിരീക്ഷണങ്ങൾ എന്ന ലേഖന ഭാഗത്തിലൂടെ എം.എൻ. വിജയൻ തികച്ചും വ്യത്യസ്തമായ ചില കാഴ്ചപ്പാടുകൾ നമുക്കു മുന്നിൽ അവതരിപ്പിക്കുകയാണ്.
തലക്കെട്ടുതന്നെ ശ്രദ്ധിക്കാം – ‘കാവ്യകല് – എന്നാണദ്ദേഹം വിശേ ഷിപ്പിക്കുന്നത്. വാക്കുകളുടെ നൃത്തമായി കവിതയെ അദ്ദേഹം കണക്കാക്കുന്നു. അപ്പോൾ ആ നൃത്തസംവിധായകൻ തീർച്ച് യായും കവിതന്നെ. “അപാരെ കാര്യസംസാരെ കവിരേണ പ്രജാപതി – എന്നൊരു പൗരാണിക ഭാരതീയ കാവ്യ ചിന്ത തന്നെയുണ്ട്. അതായത് “അനന്തമായ
കാവ്യലോകത്ത് കവി തന്നെയാണ് ചക്രവർത്തി.” – ഈ ഭാരതീയ കാവ്യചിന്തയോട് നീതി പുലർത്തിക്കൊണ്ടുതന്നെയാണ് വിജയൻ മാഷും വസ്തതകൾ വിശകലനം ചെയ്യുന്നത്. തന്റെ അന്തരംഗത്തിൽ ഉടലെ ടുത്ത ആശയങ്ങളെ, അനായാസം തൂലികത്തുമ്പാൽ വരച്ചിടു കയും, നൃത്തം ചെയ്യിക്കുകയും ചെയ്യുന്ന ആ കവി മനസ്സ്, അപാ രമായ സ്വാതന്ത്ര്യമാണ് കവി അനുഭവിക്കുന്നത്.
ഏതുരീതിയിൽ, എ ങ്ങ നെ സഹൃദ യ ഹുദ യ ങ്ങ ളെ രസ പൂർണ്ണ ത യിൽ എത്തിക്കാം, എന്നത് കവിയുടെ ഔചിത്യം നിറഞ്ഞ തീരുമാനം മാത്രമാണ്. ഇടപെടലുകൾ ഇല്ലാതെ സ്വതന്ത്രമായി അതു തീരു മാനിക്കുവാനുള്ള ആ അവകാശമാണ് കവിയെ ഒരു ചക വർത്തിക്കു തുല്യനാക്കി തീർക്കുന്നത്.
ഇവിടെ ലേഖകൻ കവിതയെ ഒരു (Performing Art) കലാപക ടനത്തിന്റെ തലത്തിലേക്ക് ഉയർത്തുകയാണ്. ഒരു കലാകാരൻ തന്റെ കയ്യൊപ്പ് താൻ അവതരിപ്പിക്കുന്ന കലാപ്രകടനത്തിൽ ചാർത്തിയിട്ടുണ്ടാകും. അതുതന്നെയാണ് ഒരു കവിയും ചെയ്യു ന്നത്. തന്റെ വ്യക്തിത്വം, തന്റേതു മാത്രമായ ശൈലികൾ, ബിംബ ങ്ങൾ, അനുഭവങ്ങൾ
ഇതെല്ലാം കോർത്തെടുത്തുകൊണ്ട് ഒരു കവിത ചമയ്ക്കുമ്പോൾ തീർച്ചയായും തന്റേതു മാത്രമായ ഒരു കാവ്യസാമ്രാജ്യം തീർക്കുക കൂടിയാണ് അയാൾ ചെയ്യുന്നത്. കവിത സമൂഹത്തിലേക്കു മാത്രമല്ല, കവിയിലേക്കു കൂടി തിരി ച്ചുവെക്കുന്ന ഒരു കണ്ണാടിയായി മാറുന്നു.
കവിതയിലൂടെ അതിന്റെ രചയിതാവിനെയും കണ്ടെത്താൻ വായനക്കാർക്കു കഴിയുന്നു. കവികൾ അനുഭവിക്കുന്ന ഈ തരത്തിലുള്ള വ്യക്തി സ്വാതന്ത്ര്യ വും, സ്വാഭാവികതയും കവിതകളെ (അവരുടെ സൃഷ്ടികളെ വ്യത്യസ്തമാക്കുന്നു. അങ്ങനെ ഒരേ പ്രതീകത്തെ (ബിംബത്തി വ്യത്യസ്ത രീതിയിൽ സമീപിക്കാൻ അവർക്കു സാധിക്കുന്നു. കവിത ഒരു നൃത്തമാണെങ്കിൽ ആ നൃത്തത്തിനു വ്യത്യസ്തത വേണം. എല്ലാ നൃത്തവും ഒരുപോലെയാകുമ്പോൾ ആവർത്തന വിരസത അനുഭവപ്പെടും.
ലേഖകൻ സൂചിപ്പിക്കുന്നതുപോലെ കവിതയിലെ നൃത്തം ശബ്ദത്തിന്റെ അർത്ഥത്തിന്റെ അല്ല, മറിച്ച് താണ്. അർത്ഥതലത്തിലെ ഈ വ്യത്യസ്തയാണ് കവിതകളെ വ്യത്യസ്തമാക്കുന്നത്. ഇതു തെരഞ്ഞെടുക്കുന്നത് കവിയുടെ ശൈലിക്കനുസൃതമായിട്ടും, വ്യക്തിത്വത്തിൽ യോജിച്ച മട്ടിലുമാ യിരിക്കും.
അങ്ങനെയാണ് ഒരേ ബിംബം വിവിധ ഭാവങ്ങളിൽ കവിതയിൽ പ്രത്യക്ഷപ്പെടുന്നത്. കാർമേഘം’ – ചെറുശ്ശേരിക്ക് ശ്രീകൃഷ്ണനിലേക്കുള്ള സൗന്ദര്യവിശേഷണത്തിന്റെ മാർഗ്ഗമായി രുന്നെങ്കിൽ ഇടശ്ശേരിയ്ക്കത് മറ്റൊന്നാണ്-
“പേരാറ്റിൻ നീരായ ചെമ്പിച്ച ധാരാളമാട്ടിത്തെളിച്ചുകൊണ്ടങ്ങനെ എത്തീകിഴക്കൻ മലകടന്നിന്നലെ ഇ കറുത്തപ്പെട്ടിച്ചികൾ ല ഇത്തീരഭൂവിൽ
ഈ രീതിയിൽ ചെറുശ്ശേരിയിൽ നിന്ന് ഇടശ്ശേരിയിലേക്ക് എത്തു മ്പോൾ ഒരേ ബിംബത്തിനു തന്നെ വന്ന അർത്ഥതലത്തിലുള്ള മാറ്റം അത്ഭുതാവഹമാണ്. ഇത് പൗരാണികതയും, ആധുനിക തയും തമ്മിലുള്ള അന്തരമാണെന്ന് സമർത്ഥിച്ചാൽ തന്നെ, ബിംബത്തിന്റെ അവതരണത്തിൽ രണ്ടുകവികളും വരുത്തിയ അസാമാന്യമായ വ്യത്യസ്ത അർത്ഥതലത്തിലെ കവിതയിലെ ആ നൃത്തം) എടുത്തു പറയാതിരിക്കാൻ വയ്യ. കവിതയ്ക്കു മാത്രം കഴിയുന്ന ഒന്നാണ് അനേകാർത്ഥങ്ങളെ ഒരേസമയം ജനിപ്പിയ്ക്കൽ. എടുക്കുമ്പോൾ ഒന്ന്, തൊടുക്കു മ്പോൾ പത്ത് കൊള്ളുമ്പോൾ നൂറ്’ എന്ന രീതിയിൽ അർത്ഥാ
ല്പ്പാദനം, ആസ്വാദക മനസ്സിന്റെ വ്യാപ്തിക്കനുസരിച്ച് ഇങ്ങനെ വർദ്ധിക്കും. ‘തൂലിക’ – എന്നത് ഒരൊറ്റപദമാണ്. പക്ഷേ ആ വാക്ക് ‘ജനിപ്പിക്കുന്നത് അർത്ഥസാഗരത്തെയാണ്. ഇങ്ങനെ പശ്ചാത്തലമനുസരിച്ച്, കാലഘട്ടങ്ങൾക്കനുസൃതമായി, അർത്ഥ ഭാവത്തെയും വ്യത്യസ്തമാക്കാൻ കവിതയ്ക്കു സാധിക്കുന്നു. കുഞ്ചൻ നമ്പ്യാർക്ക് ‘വാഴക്കുല യെ ‘രത്ന’ ഞങ്ങളോട് സാമ്യപ്പെടുത്താൻ കഴിയുന്നത്, രാജഭരണകാലത്തിന്റെ ശക്തമായ സ്വാധീനമുള്ളതുകൊണ്ടു കൂടിയാണ്.
രാജസദസ്യനായ നമ്പ്യാർക്ക് ആ അമൂല്യമായ വസ്തുക്കളോടുള്ള ബന്ധം (പരിചയം) കവിതയിലെ ബിംബവൽക്കരണത്തിലും ശക്തമായ സ്വാധീനം ചെലുത്തി എന്നുസാരം. ചങ്ങമ്പുഴയുടെ ലോകം വ്യത്യസ്തമാണ്.
ഉള്ളവനും, ഇല്ലാത്ത വനും തമ്മിലുള്ള അന്തരത്തിന്റെ ആഴമറിഞ്ഞ കവിയ്ക്ക്, ‘വാഴ . ക്കുല’ എന്നത് വിശപ്പിന്റെയും, പ്രത്യാശയുടേയും പ്രതീകമാണ്. ഈ തരത്തിൽ കാലഘട്ടങ്ങൾക്ക് അനുസരിച്ച് സാമൂഹികജീവി തത്തിൽ ഉണ്ടാകുന്ന മാറ്റങ്ങൾ കവിതയുടെ ബിംബവൽക്കരണ ത്തിലും, നിഴലിക്കും. ‘മേഘം’ –
അവിടെ യക്ഷന്റെ കാമനക ളുടെ പ്രതീകമാകുമ്പോൾ, വള്ളത്തോളിലത് സ്വാതന്ത്ര്യദാഹത്തി ന്റേയും, സ്വദേശിവൽക്കരണത്തിന്റേയും ബിംബമായി മാറുന്നു. ഈ തരത്തിലുള്ള അവ്യവസ്ഥിതത്വം’ – കവി അവതരിപ്പിക്കുന്ന പ്രതീകങ്ങളിൽ, കടന്നുവരുന്നുണ്ട്.
അതിനു ശക്തമായ പ്രേരണയായി കവികളിൽ വർത്തിക്കുന്നത്, അതാതു കാലഘട്ടങ്ങളും ഒപ്പം അന്നത്തെ സാമൂഹിക അന്തരീക്ഷവും കൂടിയാണ്. നേരെ കാര്യങ്ങൾ അവതരിപ്പിക്കാതെ ഇങ്ങനെയുള്ള ബിംബങ്ങളും പ്രതീകങ്ങളും ഉപയോഗിച്ച് പറയുമ്പോഴാണ് അത് കവിതയാ കുന്നത്. ആസ്വാദക ഹൃദയങ്ങളിൽ മായാത്ത കയ്യൊപ്പു ചാർത്തുന്നത്. കവികൾ സ്വയം ലോകത്തെ സൃഷ്ടിക്കുന്നവരാണ്.
അതു കൊണ്ടു കൂടിയാകണം അവരെ കാവ്യലോകത്തെ ചക്രവർത്തി മാർ എന്നു വിശേഷിപ്പിക്കുന്നത്. ഭാവനയുടെ മനോഹരമായ ആ സങ്കൽപ്പലോകത്തിലേക്ക് അവർ നമ്മുടെ ഹൃദയങ്ങളെ, കുട്ടിക്കൊണ്ടുപോവുകയാണ്. ആസ്വാദനത്തിന്റെ നിരവധി തലങ്ങൾ സമ്മാനിച്ചുകൊണ്ടായിരിക്കും ആ മനോഹരയാത്ര. ചലനത്ത ന ത്തിലെന്ന
പോലെ, നാദത്ത ഗാനത്തിലെന്നപോലെ, കല്ലിനെ ശില്പത്തിലെന്നപോലെ, അത്ഭുതകരമായി, മനോഹര മായി അർത്ഥഗർഭമായി വാക്കുകളെക്കൊണ്ട് നൃത്തം ചെയ്യിപ്പി ച്ചുകൊണ്ടായിരിക്കും ആ മുന്നോട്ടുപോകൽ. അങ്ങനെ കവി തയും കലയായി തീരുന്നു.
മറ്റു കലാരൂപങ്ങളിൽ മുദ്രയും, ഭാവ വും, ചലനവും വ്യത്യസ്തമാകുമ്പോൾ, ഇവിടെ വാക്കുകളുടെ അർത്ഥഭേദങ്ങൾകൊണ്ടും, പ്രതീകങ്ങളുടെ അവ്യവസ്ഥിതമായ അവസ്ഥ കൊണ്ടും വ്യത്യസ്തതകൾ സൃഷ്ടിക്കപ്പെടുന്നു.
‘കാവ്യ കലയെക്കുറിച്ചുള്ള നിരീക്ഷണങ്ങളിൽ ഈ തരത്തിലുള്ള വ്യത്യ ദർശനങ്ങളാണ് എം.എൻ. വിജയൻ പകർന്നു നൽകുന്നത്. ആഴവും, അനന്തതയും ഒത്തുചേർന്ന കാവ്യസാഗരയാത്രയ്ക്ക് ഉതകുന്ന ഒരു ഉത്തമനാകതന്നെയാണ് സാഹിത്യ വിദ്യാർത്ഥി കൾക്ക് ഈ ലേഖനം.
Conclusion:
In the end, Govindan Nair argues that poetry is a powerful form of art that can be used to express the human experience in all its complexity. He believes that poetry can help us to understand ourselves and the world around us, and that it can inspire us to live more meaningful lives.
“कनुप्रिया” हिन्दी साहित्य के आधुनिक काल की एक प्रसिद्ध कृति है। यह एक प्रेम कथा है, जिसमें राधा और कृष्ण के प्रेम को एक नये दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया गया है। इस कृति में राधा की नायिका के रूप में एक नई पहचान स्थापित की गई है। राधा को एक मात्र प्रेमिका के रूप में नहीं, बल्कि एक स्वतंत्र और आत्मनिर्भर नारी के रूप में चित्रित किया गया है।
कनुप्रिया कवि का नाम :
डॉ. धर्मवीर भारती। (जन्म 25 दिसंबर, 1926; निधन 4 सितंबर, 1997.)
कनुप्रिया प्रमुख कृतियाँ :
गुनाहों का देवता, सूरज का सातवाँ घोड़ा (उपन्यास); सात गीत वर्ष, ठंडा लोहा, कनुप्रिया (कविता संग्रह), मुर्दो का गाँव, चाँद और टूटे हुए लोग, ऑस्कर वाइल्ड की कहानियाँ, बंद गली का आखिरी मकान (कहानी संग्रह), नदी प्यासी थी (एकांकी), अंधा युग, सृष्टि का आखिरी आदमी (काव्य नाटक), सिद्ध साहित्य (साहित्यिक समीक्षा), एक समीक्षा, मानव मूल्य और साहित्य, कहानी अकहानी, पश्यंती (निबंध) आदि।
कनुप्रिया विशेषता :
आधुनिक काल के रचनाकारों में डॉ. धर्मवीर भारती मूर्धन्य साहित्यकार के रूप में प्रतिष्ठित हैं। ‘कनुप्रिया’ आपकी अनोखी और अद्भुत कृति है। डॉ. धीरेंद्र वर्मा के निर्देशन में सिद्ध साहित्य’ पर शोध प्रबंध, जिसका हिंदी साहित्य अनुसंधान के इतिहास में विशेष स्थान है। टाइम्स ऑफ इंडिया पब्लिकेशन के प्रकाशन ‘धर्मयुग’ के वर्षों तक संपादक। आपको पद्मश्री, व्यास सम्मान तथा कई अन्य राष्ट्रीय पुरस्कारों से अलंकृत किया गया है।
कनुप्रिया विधा :
पद्य (नई कविता)।
कनुप्रिया विषय प्रवेश :
‘कनुप्रिया’ राधा और कृष्ण के प्रेम और महाभारत की कथा से संबंधित कृति है। कृति में बताया गया है कि प्रेम सर्वोपरि है और युद्ध का अवलंब करना निरर्थक है। राधा कृष्ण से महाभारत युद्ध को लेकर कई प्रश्न पूछती है। महाभारत युद्ध में हुई जीत-हार, कृष्ण की भूमिका, युद्ध का उद्देश्य, युद्ध की भयावहता, सैन्य संहार आदि बातों से संबंधित राधा का कृष्ण से हुआ तर्कसंगत संवाद इस काव्य में चार चाँद लगा देता है।
कनुप्रिया कविता का सरल अर्थ
सेतु : मैं
राधा कहती है, “हे कनु (कृष्ण) नीचे की घाटी से ऊपर के शिखरों पर जिसे जाना था, वह चला गया। (लेकिन बलि मेरी ही चढ़ी) मेरे ही सिर पर पैर रख मेरी बाहों से इतिहास तुम्हें ले गया।” हे कनु, इस लीला क्षेत्र से उठकर युद्ध क्षेत्र तक की अलंघ्य दूरी तय करने के लिए क्या तुमने मुझे ही सेतु बना दिया?
अब इन शिखरों और मृत्यु-घाटियों के बीच बने इस सोने के पतले और गुंथे हुए तारों से बने पुल की तरह मेरा यह सेतु-रूपी शरीर काँपता हुआ निर्जन और निरर्थक रह गया है। जिसे जाना था वह चला गया।
अमंगल छाया
अवचेतन मन में बैठी हुई राधा अपने चेतन मन वाली राधा को संबोधित करते हुए कहती है, हे राधा! यमुना के घाट से ऊपर आते समय कदंब के पेड़ के नीचे खड़े कनु को देवता समझकर प्रणाम करने के लिए तुम जिस मार्ग से लौटती थी, हे बावरी! आज तुम उस मार्ग से होकर मत लौटना।
ये उजड़े हुए कुंज, रौंदी हुई लताएँ, आकाश में छाई हुई धूल, क्या तुम्हें यह आभास नहीं दे रहे हैं कि आज उस मार्ग से कृष्ण की अठारह अक्षौहिणी सेनाएँ युद्ध में भाग लेने जा रही हैं!
हे बावरी! आज तू उस मार्ग से दूर हटकर खड़ी हो जा। लताकुंज की ओट में अपने घायल प्यार को छुपा ले। क्योंकि आज इस गाँव से द्वारिका की उन्मत्त सेनाएँ युद्ध के लिए जा रही हैं।
हे राधा! मैं मानती हूँ कि कन्हैया सबसे अधिक तुम्हारा अपना है। मैं मानती हूँ कि तुम कृष्ण के रोम-रोम से परिचित हो। मैं मानती हूँ कि ये असंख्य सैनिक तुम्हारे उसके (कन्हैया के) हैं, पर तू यह जान ले कि ये सैनिक तुझे बिलकुल नहीं पहचानते हैं। इसलिए हे बावरी! इस मार्ग से दूर हट जा।
यह आम की डाल तुम्हारे कन्हैया की अत्यंत प्रिय थी। जब तक तू (यहाँ) नहीं आती थी, सारी शाम कन्हैया इस डाल पर टिककर बंशी में तेरा नाम भर-भरकर तुम्हें टेरा करता था।
आज यह आम की डाल सदा-सदा के लिए काट दी जाएगी। इसका कारण यह है कि कृष्ण के सेनापतियों के तेज गति वाले रथों की ऊँची-ऊँची पताकाओं में यह डाल उलझती है… अटकती है। इतना ही नहीं, रास्ते के किनारे यह छायादार पवित्र अशोक का पेड़ भी आज टुकड़े-टुकड़े कर दिया जा सकता है। अगर इस गाँव के लोग सेनाओं के स्वागत में (इस वृक्ष की पत्तियों के) तोरण नहीं बनाएँगे, तो शायद यह गाँव उजाड़ दिया जाएगा।
अरे पगली! दुखी क्यों होती है। क्या हुआ, यदि आज के कृष्ण तुम्हारे साथ पहले बिताए हुए तन्मयता के गहरे क्षणों को भूल चुक हैं।
हे राधे! तू उदास क्यों होती है कि इस भीड़भाड़ में तुम्हें और तुम्हारे प्यार को पहचानने वाला कोई नहीं है।
राधे, तुम्हें तो गर्व होना चाहिए। क्योंकि किसके महान प्रेमी के पास अठारह अक्षौहिणी सेनाएँ हैं। (केवल तुम्हारे ही प्रेमी के पास न!)
एक प्रश्न
राधा अपने कनु (कृष्ण) को संबोधित करते हुए कहती है कि मेरे महान कनु, मान लो… क्षणभर के लिए मैं इस बात को स्वीकार कर लूँ कि मेरे वे तन्मयता वाले सारे गहरे क्षण केवल मेरे भावावेश थे… मेरी कोमल कल्पनाएँ थीं… केवल बनावटी, निरर्थक और आकर्षक शब्द थे।
मान लो, एक क्षण के लिए मैं यह स्वीकार कर लूँ कि तुम्हारा महाभारत का यह युद्ध पाप-पुण्य, धर्म-अधर्म, न्याय-दंड तथा क्षमा-शील वाला है। इसलिए इस युद्ध का होना इस युग की सच्चाई है। फिर भी कनु, मैं क्या करूँ? मैं तो वही तुम्हारी बावरी मित्र हूँ।
मुझे तो केवल उतना ही ज्ञान मिला है, जितना तुमने मुझे दिया है। तुम्हारे दिए हुए समस्त ज्ञान को समेट कर भी मैं तुम्हारे इतिहास, तुम्हारे उदात्त और महान कार्यों को समझ नहीं पाई हूँ।
कनु, अपनी यमुना नदी, जिसमें मैं अपने आप को घंटों निहारा करती थी, अब उसमें हथियारों से लदी हुई असंख्य नौकाएँ रोज-रोज न जाने कहाँ जाती हैं? नदी की धारा में बह-बह कर आने वाले टूटे हुए रथ और फटी हुई पताकाएँ किसकी हैं?
हे कनु, युद्ध क्षेत्र से हारी हुई सेनाएँ, जीती हुई सेनाएँ, गगनभेदी युद्ध घोष, विलाप के स्वर और युद्ध क्षेत्र से भागे हुए सैनिकों के मुँह से सुनी हुई युद्ध की अकल्पनीय और अमानवीय घटनाएँ, … क्या यह सब सार्थक है? गिद्ध जो चारों दिशाओं से उड़-उड़ कर उत्तर : दिशा की ओर जा रहे हैं, हे कनु, क्या इन्हें तुम बुलाते हो? (जैसे तुम भटकी हुई गायों को बुलाते थे।)
हे कनु, मैंने अब तक तुमसे जितनी समझ पाई है, उस समझ को बटोर कर भी मैं यह जान पाई हूँ कि और भी बहुत कुछ है तुम्हारे पास, जिसका कोई भी अर्थ मेरी समझ में नहीं आता।
हे कनु, जिस तरह तुमने युद्ध क्षेत्र में अर्जुन को युद्ध का प्रयोजन और उसकी सार्थकता समझाई थी, वैसे मुझे भी समझा दो कि सार्थकता क्या है? राधा कहती है कि मान लो कि मेरी तन्मयता के गहरे क्षण रंगे हुए, अर्थहीन परंतु आकर्षक शब्द थे, तो तुम्हारी दृष्टि से सार्थक क्या है? इस सार्थकता को तुम मुझे कैसे समझाओगे?
शब्द – अर्थहीन
…शब्द, शब्द, शब्द! राधा कहती है, मेरे लिए इन शब्दों की कोई कीमत नहीं है। हे कनु, जो शब्द मेरे पास बैठकर तुम्हारे काँपते हुए होठों से नहीं निकलते वे सभी शब्द मेरे लिए अर्थहीन हैं, निरर्थक हैं। वह कहती हैं कि कर्म, स्वधर्म, निर्णय और दायित्व जैसे शब्द मैंने भी गली-गली में सुने हैं। अर्जुन ने इन शब्दों में भले ही कुछ पाया हो, हे कनु! इन शब्दों को सुनकर मैं कुछ भी नहीं पायी। मैं रास्ते में ठहरकर तुम्हारे उन होठों की कल्पना करती हूँ । जिन होठों से तुमने प्रणय के शब्द पहली बार कहे होंगे।
मैं कल्पना करती हूँ कि अर्जुन की जगह मैं हूँ और मेरे मन में मोह उत्पन्न हो गया है। मुझे कुछ पता नहीं है, युद्ध कौन-सा है और मैं किसके पक्ष में हूँ। मुझे कुछ पता नहीं कि समस्या क्या है और लड़ाई किस बात की है। लेकिन मेरे मन में मोह उत्पन्न हो गया है। क्योंकि तुम्हारा समझाना मुझे बहुत अच्छा लगता है। जब तुम मुझे समझा रहे हो तो सेनाएँ स्तब्ध खड़ी रह गई हैं और इतिहास की गति रुक गई है। और तुम मुझे समझा रहे हो।
तुम कर्म, स्वधर्म, निर्णय, दायित्व जैसे जिन शब्दों को कहते हो, ये मेरे लिए बिलकुल अर्थहीन हैं। कनु, मैं इन सबसे हट करके एकटक तुम्हें देख रही हूँ। तुम्हारे प्रत्येक शब्द को अँजुरी बनाकर मैं बूंद-बूंद तुम्हें पी रही हूँ। तुम्हारा तेज, तुम्हारा व्यक्तित्व जैसे मेरे शरीर के एक-एक मूर्छित संवेदन को दहका रहा है। लगता है तुम्हारे जादू भरे होठों से शब्द रजनीगंधा के फूलों की तरह झर रहे हैं – एक के बाद एक।
कनु कनु, स्वधर्म, निर्णय और दायित्व आदि जो शब्द तुम्हारे मुँह से निकलते हैं, वे शब्द मुझ तक आते-आते बदल जाते हैं। मुझे ये शब्द राधन्, राधन्, राधन् के रूप में सुनाई देते हैं। तुम्हारे द्वारा कहे जाने वाले शब्द असंख्य हैं, उनकी गणना नहीं की जा सकती। पर मेरे लिए उनका अर्थ केवल एक ही है – मैं … मैं … केवल मैं। है फिर बताओ कनु, इन शब्दों से तुम मुझे इतिहास कैसे समझाओगे!
Conclusion
“कनुप्रिया” एक प्रेम कथा है, लेकिन यह एक प्रेम कथा से कहीं अधिक है। यह एक नारी की आत्मकथा है, जिसमें नारी के प्रेम, संघर्ष और जीत को चित्रित किया गया है। यह कृति नारी की स्वतंत्रता और आत्मनिर्भरता का एक उद्घोष है।
Kaippad Kelkkunnundo is a Malayalam short story by N.P. Chellappan. It was first published in 1948 in the literary magazine Mathrubhumi. The Summary is set in a small village in Kerala and tells the story of a young boy named Kunju who is trying to learn the meaning of life.
Kaippad Kelkkunnundo Summary in Malayalam
ജീവിത രേഖ : കാസർഗോഡ് സ്വദേശിയാണ്. കാഞ്ഞങ്ങാട് കോളേജിലെ പഠന കാലം മുതൽ പരിസ്ഥിതി പ്രവർത്തകനാണ്. ജോൺസി ജേയ്ക്കബിന്റെ നേതൃത്തത്തിൽ രൂപപ്പെട്ട സീക്കു ‘മായി ചേർന്ന് പ്രവർത്തിച്ചു. 138 സ് പീഷിസ്റ്റുകളില പൂമ്പാറ്റകളെ ഉൾപ്പെടുത്തി ഡോ. ജാഫർ പാലോട്ടും വി.സി. ബാലകൃഷ്ണനുമൊത്ത് കേരളത്തിലെ ചിത്രശലഭങ്ങൾ’ എന്ന പുസ്തകം പ്രസിദ്ധീകരിച്ചു.
ഗീതു മോഹൻദാസ് ജീവിത രേഖ മലയാളത്തിലെ സിനിമാ നടിയും ഡോക്യുമെന്ററി സംവിധായകയുമാണ് ഗീതു മോഹൻദാസ്. ശരിയായ പേര് ഗായത്രി മോഹൻദാസ്. ആദ്യ ചിത്രം 1986 – ൽ ഇറങ്ങിയ ഒന്നു മുതൽ പൂജ്യം
വരെയാണ്. അഞ്ചു വയസ്സുള്ളപ്പോഴാണ് ഗീതു ഈ സിനിമയിൽ അഭിനയിക്കുന്നത്. ഗീതു മോഹൻദാസ് സംവിധാനം ചെയ്ത ‘കേൾക്കുന്നുണ്ടോ?’ എന്ന ഡോക്യുമെന്ററി 2009 – ൽ ഗോവ അന്താരാഷ് ചലച്ചിത്രോത്സവത്തിലെ മികച്ച ഹൃസ്വചിത്രമായി തെരഞ്ഞെടുക്കപ്പെട്ടു.
അറിവ് കാലാതിവർത്തിയായി തലമുറകളിലൂടെ നിതാ ന്തമായി പകർത്തപ്പെടുമ്പോഴാണ്.
പ്രക്രിയ സാധിക്കുമ്പോൾ അത് കലാത്മകമായ സൃഷ്ടിയായി മാറുന്നു. സംസ്കാരം വിളംബരം ചെയ്യുന്ന ഇത്തരം സൃഷ്ടികൾ പുരാത നകാലത്തു കാണുന്ന ചിത്രങ്ങൾ, മൂർത്തികൾ,
പെയിന്റിംഗുകൾ എല്ലാം തലമുറകൾ തലമുറകൾക്കുവേണ്ടി, കൈമാറിയ അറിവു കളെയാണ് ഉൾക്കൊള്ളുന്നത്. മനുഷ്യജീവിത ഡോക്യുമെന്റേഷനുകളാണിവ. ചരിത്രത്തിന്റെ
‘A good documentary film is the creative treatment of actuality’ എന്ന് ഡോക്യുമെന്ററി സിനിമയെ നിർവ്വചിക്കാം. മാനവചരിത്രം കാലഘട്ടങ്ങളിലൂടെ നല്ലതുപോലെ മനസ്സി ലാക്കിയവർക്കു മാത്രമേ നല്ല ഡോക്യുമെന്ററി സിനിമ എടുക്കാൻ കഴിയൂ; അല്ലെങ്കിൽ പ്രതവാർത്തകളെ ആശ്രയിക്കേണ്ടിവരും.
സാമാന്യത്തിൽ കൂടുതൽ സാമൂഹികപ്രതിബദ്ധതയുളളവർക്കു മാത്രമേ നല്ല ഡോക്യുമെന്ററിയുണ്ടാക്കാൻ കഴിയു. സംവിധായ കൻ അയാൾ ചിത്രീകരിക്കുവാൻ പോകുന്ന വഴിയിൽ അല്ലെ ങ്കിൽ പ്രമേയത്തിൽ ലീനമായിട്ടുള്ള സത്യത്തെ യഥാർത്ഥമായി അറിഞ്ഞിരിക്കണം.
താൻ ഗ്രഹിച്ച കാര്യങ്ങളെ ചലച്ചിത്ര മാധ്യമ മുപയോഗിച്ച് എങ്ങനെ ചിത്രീകരിക്കണമെന്ന് അറിഞ്ഞിരിക്കണം. ശാസ്ത്രസാങ്കേതികവിദ്യയുടെ സന്താനമാണ് സിനിമയെന്നു പറയുന്നത് ശരിയല്ല. വെറുതെ ക്യാമറയ്ക്കു മുൻപിൽ കാണുന്ന പ്രകൃതിയും ദൃശ്യങ്ങളുമല്ല സിനിമ. സൗന്ദര്യാനുഭൂതി ശാസ്ത്രത്തിന്റെ പുതിയൊരു സങ്കേതമാണ് സിനിമയിൽ നിലവിൽവന്ന ത്.
സമയത്തെ ദൃശ്യത്തിലൂടെ പ്രദർശിപ്പിക്കുവാൻ കഴിഞ്ഞു എന്നതാണ് സിനിമയുടെ ഏറ്റവും വലിയ ശക്തി. ഒരു പ്രത്യേക സ്ഥലകാലത്ത് കാണുന്ന ദൃശ്യപരിണാമത്തെ ചലച്ചിത്രം സമയബന്ധിതമായി ഇംപ്രിന്റു ചെയ്ത് എക്കാലത്തേക്കു മായി സൂക്ഷിക്കുന്നു. അതാണ് ചലച്ചിത്ര മാധ്യമരേഖ അഥവാ ഡോക്യുമെന്ററി വികസിതരാജ്യങ്ങളിൽ ഡോക്യമെന്ററി അഥവാ നോൺ ഫിക്ഷൻ സിനിമകൾക്ക് തന്നെയാണ്
കഥാചിത്രങ്ങളേ ക്കാൾ പ്രാധാന്യവും അനശ്വരതയും കൂടുതലുള്ളത്. റോബർട്ട് ഫ്ളാവർട്ടിയാണ് ഡോക്യുമെന്ററിയുടെ പിതാവ് എന്ന റിയപ്പെടുന്നത്. നാനുക്ക് ഓഫ് ദി നോർത്ത് (Nanook of the North) എന്ന ഡോക്യുമെന്ററിയിലൂടെ ചിരകാലപ്രതിഷ്ഠ നേടിയ ഫ്ളാവർട്ടി ലോകം ആദരിക്കപ്പെടുന്ന ചലച്ചിത്രകാരനാണ്.
ഈ ചിത്രത്തിലെ ഏതെങ്കിലും ഒരംശത്തെ ആർക്കും തള്ളിപ്പറയു വാനാകില്ല. ഉത്തരധ്രുവത്തിൽ ആർട്ടിക് ക്യൂബെക്ക് എന്ന വലിയൊരു സ്ഥലത്ത് ഹഡ്സൻ ഉൾക്കടലിന്റെ തീരത്ത് ഐസ് മാത്രമുളള ഭൂതലത്തിൽ ഒറ്റപ്പെട്ടു കഴിയുന്ന എസ്കിമോ കുടും ബത്ത ആധാരമാക്കിയുള്ളതാണ് ഈ ഡോക്യുമെന്ററി. 1948ൽ ഫ്ളാവർട്ടിയെടുത്ത ലുധിയാന സ്റ്റോറിയും ഏറെ പ്രശസ്തമാണ്.
ലക്ഷക്കണക്കിനടി ഫിലിം ഷൂട്ട് ചെയ്തിട്ട് ഇതിൽ നിന്നും 78 മിനിട്ട് മാത്രം എഡിറ്റു ചെയ്തെടുക്കുകയാണുണ്ടായത്. Drifters എന്ന ഡോക്യുമെന്ററിയെടുത്ത ജോൺ ഗിയേർസൻ, ഡിസിഗാ വെർട്ടോവ് എന്നിവർ ഫ്ളാവർട്ടിയുടെ കടുത്ത ആരാ ധകരായിരുന്നു. ഇക്കാലയളവിൽ ഒക്ടോവിയോ ജറ്റിനോയും ഫെർണാണ്ടോ- ഇ-
സോളാനാസ്സു കൂടിയുണ്ടാക്കിയ ലാറ്റിനമേ രിക്കൻ സാമൂഹ്യസിനിമയായ അവേഴ്സ് ഓഫ് ഫർസസ് ഏറെ ശ്രദ്ധേയമായി. സുഖദേവിന്റെ നയൻമൻസ് ടു ഫ്രീഡം ഇന്ത്യൻ ഡോക്യുമെന്ററിയിൽ തിളക്കമാർന്നതാണ്. ലോകപ്രസിദ്ധ വാർത്താചാനലുകൾ ഡോക്യുമെന്ററിക്ക് കൂടുതൽ പ്രാധാന്യം നൽകിയതിന്റെ ഫലമായി കൂടുതൽ ഡോക്യുമെന്ററികൾ ഉണ്ടാ യി.
ആനന്ദ് പട്വർധന്റെ ഡോകുമെന്ററി രാഷ്ട്രീയരംഗത്ത് ഏറെ കോളിളക്കമുണ്ടാക്കിയതാണ്. പുതിയ അനേകം ഡോക മെന്ററികൾ ഇന്ത്യൻ ഭാഷകളിൽ ലോകോത്തര നിലവാരത്തിലു ളളവയുണ്ട്. എന്നാൽ എണ്ണം കുറവാണെന്നു കാണാം. മലയാ ളത്തിലെ വിഖ്യാതമായ ‘Basheer the Man’ തീർച്ചയായും നാം കണ്ടിരിക്കേണ്ട ഡോക്യുമെന്ററിയാണ്.
Conclusion:
In the end, Kunju comes to the realization that the meaning of life is to live it to the fullest. He learns that it is important to be kind and compassionate to others, and to appreciate the beauty of the world around us.
लोकगीतों का इतिहास सदियों पुराना है। माना जाता है कि पहले लोकगीत ऐसे गीत थे जो लोगों द्वारा अपने काम के दौरान गाए जाते थे। समय के साथ, लोकगीतों की संख्या और विविधता बढ़ती गई।
लोकगीतों का प्रसार पूरे विश्व में हुआ। विभिन्न संस्कृतियों के लोकगीतों में समानताएँ पाई जा सकती हैं, लेकिन उनमें क्षेत्रीय और सांस्कृतिक विशिष्टताएं भी होती हैं।
काव्य का एक प्रकार लोकगीत भी है। लोकगीतों की रचना पद, दोहा, चौपाई जैसे छंदों में की जाती है। लोकगीत में त्योहारों की बड़ी सरस अभिव्यक्ति पाई जाती है। इनमें गेयता तत्त्व प्रमुख होता है। कजरी, सोहर, चैती, बन्ना-बन्नी लोकगीतों के विभिन्न प्रकार हैं। लोकगीतों की भाषा में ग्रामीण जनजीवन का स्पर्श रहता है। ये परंपरा द्वारा अगली पीढ़ी तक पहुँच जाते हैं।
लोकगीत विधा विधा परिचय:
काव्य का एक प्रकार लोकगीत भी है। लोकगीतों की रचना पद, दोहा, चौपाई जैसे छंदों में की जाती है। लोकगीत में त्योहारों की बड़ी सरस अभिव्यक्ति पाई जाती है। इनमें गेयता तत्त्व प्रमुख होता है। कजरी, सोहर, चैती, बन्ना-बन्नी लोकगीतों के विभिन्न प्रकार हैं। लोकगीतों की भाषा में ग्रामीण जनजीवन का स्पर्श रहता है। ये परंपरा द्वारा अगली पीढ़ी तक पहुँच जाते हैं।
लोकगीत विधा विषय प्रवेश:
प्रस्तुत काव्य में बसंत ऋतु व सावन के आगमन पर होने वाले परिवर्तनों का सजीव चित्रण किया गया है। बसंत के आने से सरसों का फूलना, अलसी का अलसाना फूलों का महकना, खेत, बाग-बगीचों का हरा-भरा हो जाना, मधुर-मस्त बयार का चलना, तन और मन का प्रसन्न होना, यौवन का अंगड़ाइयाँ लेना, कजरारी आँखों के सपने और अंत में प्रिय के वियोग में आँखों से आँसुओं की झड़ी लगना आदि जनमानस की भावनाओं की सुंदर अभिव्यक्ति है।
सावन के महीने में बादलों का घिर-घिरकर आना, बिजली का चमकना, पुरवाई का चलना, दादुर, मोर, पपीहे का बोलना, अँधियारी रात में जुगनू का जगमग-जगमग करते हुए इधर से उधर डोलना, लताओं और बेलों का फूलना, डाल-डाल का महक उठना, सरोवर और नदियों का जल से भर जाना सभी मनुष्यों के हृदय आनंदित कर जाता है।
लोकगीत विधा कविता का सरल अर्थ
सुनु रे सखिया
(1) आइल बसंत के फूल ……………………………………………….. आइल।
नायिका अपनी सखी से कह रही है कि सुन सखी, बसंत ऋतु आ गई है। हर तरफ फूल महकने लगे हैं। बसंत के आने से सरसों फूल गई है, अलसी अलसाने लगी है और पूरी धरती मानो हरियाली की चादर ओढ़कर खिल उठी है। कली-कली फूल बनकर मुस्कुराने लगी है। सुन सखी, बसंत ऋतु आ गई है। इस ऋतु के आने से खेत और वन सब हरे-भरे हो गए हैं, जिसके कारण तन-मन भी प्रसन्न हो गए हैं।
इंद्रधनुष के विभिन्न रंगों के समान भाँति-भाँति के रंग-बिरंगे फूल खिल उठे हैं। सुन सखी, बसंत ऋतु आ गई है। काजल लगी कजरारी आँखों में सपने मुस्कुराने लगे हैं और कंठ से मीठे गीत फूटने लगे हैं। बाग-बगीचों में बहार आने के साथ ही यौवन भी अंगड़ाइयाँ लेने लगा है। सुन सखी, बसंत ऋतु आ गई है।
(2) बहे मस्त बयार ……………………………………………….. आइल।
मधुर-मस्त बयार चल रही है। मानो प्यार बरसाकर हृदय का तार-तार रँगने लगी है। हर व्यक्ति का मन गुलाब की तरह खिल रहा है। सुन सखी, बसंत ऋतु आ गई है। बाग-बगीचे हरे-भरे हो गए हैं। कलियाँ खिलने लगी हैं। भौंरों के दल प्रसन्न होकर फूलों पर मँडराने लगे हैं। गौरैया भी माथे पर काला फूल सजाकर इतराने लगी है। सुन सखी, बसंत ऋतु आ गई है।
सखी, ऐसी मनभावन ऋतु में मेरे पिया मेरे पास नहीं है। प्रिय के वियोग में आँखों में लगा काजल भी चुभ रहा है। अच्छा नहीं लग रहा है। सेज मानो काँटों से भर गई है। आँसुओं की झड़ी लगी है। ये सभी मनमोहक दृश्य बबूल के काँटों की प्रतीति करा रहे हैं। पर सखी, बसंत ऋतु फिर भी आ गई है फूलों की महक लेकर।
(3) सावन आइ गये ……………………………………………….. सावन।
मनभावन सावन आ गया है। बादल घिर-घिरकर आने लगे हैं। बादल गरज रहे हैं, बिजली चमक रही है और पुरवाई चल रही है। सावन आ गया है। मेघ रिमझिम-रिमझिम करके बरस रहे हैं और धरती को नहला रहे हैं। सावन आ गया है। दादुर, मोर और पपीहे बोल रहे हैं और मेरे हृदय को प्रफुल्लित कर रहे हैं। सावन आ गया है। अँधियारी रात में जुगनू जगमग-जगमग करते हुए इधर से उधर डोल रहे हैं और सबका मन लुभा रहे हैं।
सावन आ गया है। लता और बेल सब फूलने लगी हैं। डाल-डाल महक उठी है। सावन आ गया है। सभी सरोवर और सरिताएँ जल से भरकर उमड़ पड़ी हैं। सभी मनुष्यों के हृदय आनंदित हो रहे हैं। कवि शंकर कह रहा है हे प्रिय शीघ्र चलो, श्याम बाँसुरी बजा रहे हैं। सावन आ गया है।
Conclusion
लोकगीत हमारी संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। वे हमें मनोरंजन, शिक्षा और प्रेरणा प्रदान करते हैं। वे हमें अतीत के लोगों के जीवन और विचारों को समझने में मदद करते हैं।
आज भी दुनिया भर में लोकगीत गाये जाते हैं और सुने जाते हैं। लोकगीतों को जीवित रखना और उनका प्रसार करना हमारी जिम्मेदारी है।
“कोखजाया” मुंशी प्रेमचंद की एक प्रसिद्ध कहानी है। यह कहानी एक छोटे से गांव में रहने वाले होरी नामक एक कोखे की कहानी है। होरी एक दयालु और सौम्य व्यक्ति है, लेकिन वह अपनी शारीरिक बनावट के कारण अक्सर ग्रामीणों द्वारा उपहास और दुर्व्यवहार का शिकार होता है। वह नौकरी या पत्नी नहीं ढूंढ पाता है, और उसे गांव के बाहरी इलाके में एक छोटी सी झोपड़ी में रहने के लिए मजबूर किया जाता है।
कोखजाया लेखक का नाम : श्याम दरिहरे। (जन्म 19 फरवरी, 1954.)
कोखजाया प्रमुख कृतियाँ : घुरि आउ मान्या, जगत सब सपना, न जायते म्रियते वा (उपन्यास), सरिसो में भूत, रक्त संबंध (कथा संग्रह), गंगा नहाना बाकी है, मन का तोरण द्वार सजा है (कविता संग्रह) आदि। विशेषता श्याम दरिहरे मैथिली भाषा के चर्चित रचनाकार हैं।
मैथिली भाषा में कहानी, उपन्यास तथा कविता में आपकी लेखनी की श्रेष्ठता प्रसिद्ध है। आपकी सभी रचनाएँ भारतीय संस्कृति में आधुनिक भावबोध को परिभाषित करती हैं। आपकी रचनाएँ पुरानी और नई पीढ़ी के मध्य सेतु का काम करती हैं। आपका साहित्य संप्रेषणीयता की दृष्टि से भावपूर्ण एवं बोधगम्य है।
कोखजाया विधा : अनूदित साहित्य। अनूदित कहानी विधा में जीवन में किसी एक अंश अथवा प्रसंग के चित्रण द्वारा सामाजिक बोध को व्यक्त करती है।
कोखजाया विषय प्रवेश : वर्तमान भारतीय समाज में पारिवारिक व्यवस्था में बहुत बड़ा बदलाव आ गया है। निकटस्थ रिश्ते भी भावनाओं से दूर निरर्थक होते जा रहे हैं। आज के समाज के केंद्र में धन, विलासिता सुख – सुविधाओं का स्थान सर्वोपरि हो गया है। लेखक का मानना है कि मनुष्य की इस प्रवृत्ति को बदलना होगा और रिश्तों को सार्थकता प्रदान करनी होगी वरना हमारी महान भारतीय संस्कृति रसातल में चली जाएगी।
कोखजाया पाठ का सार
रघुनाथ चौधरी की मौसी बड़ी स्नेही और सरल हृदया थीं। पिता की मृत्यु के बाद उन्होंने पिता द्वारा उनकी संपत्ति से प्राप्त अपना हिस्सा भी अपनी एकमात्र बहन यानि रघुनाथ चौधरी की माँ को दे दिया। उनके पति प्रसिद्ध आई ए एस अधिकारी थे। वे हमेशा बड़ेबड़े पदों पर आसीन रहे। अंत में भारत सरकार के वित्त सचिव के पद से रिटायर हुए थे। परंतु मौसी को कभी भी अपने पति के पद या पावर का घमंड नहीं हुआ।
मौसी का एक ही पुत्र था दिलीप। उसने दिल्ली स्थित एम्स से अपनी मेडिकल की पढ़ाई पूरी की। उस समय रघुनाथ चौधरी के मौसा दिल्ली में ही किसी ऊँचे पद पर कार्यरत थे। जिस कारण दिलीप बड़े ऐशो आराम से पढ़ता रहा। आगे की पढ़ाई के लिए वह लंदन गया तो फिर नहीं लौटा।
एक बार मौसी के नैहर के गाँव में भयंकर अकाल पड़ा। लोगों के हाहाकार और दुर्दशा से द्रवित होकर भावुक हृदया मौसी ने अपनी ससुराल से सारा जमा अन्न मँगवाया। बाजार से भी आवश्यकतानुसार खरीदवाया और पूरे गाँव के लिए भंडारा खुलवा दिया।
इसी बीच हृदय गति रुक जाने के कारण मौसी के पति का स्वर्गवास हो गया। अंतिम संस्कार के लिए अपने परिवार के साथ
दिलीप घर आया। कई दिनों तक सरकारी कामों में उलझा रहा और अनेक कागजों पर मौसी से हस्ताक्षर करवाता रहा। मौसी से पूछे बिना, चुपके – चुपके धोखे से उनकी सारी संपत्ति औने – पौने दामों में बेच दी।
लंदन जाने का दिन आया तो सभी एअरपोर्ट पहुंचे। मौसी को है एक जगह बैठाकर सब सामान की जाँच करवाने की कहकर चले ३ गए। काफी देर प्रतीक्षा करने के बाद भी जब वे लोग नहीं लौटे ३ तो चिंतित होकर मौसी ने सिक्यूरिटी पर पूछताछ की। वहाँ से उन्हें पता चला कि उनका एकमात्र पुत्र उनका टिकट रद्द करवाकर अपने परिवार को लेकर लंदन चला गया है अपनी माँ को एअरपोर्ट पर ३ अकेले, निराश्रित छोड़कर।
उसने एक बार भी यह नहीं सोचा कि माँ का क्या होगा, वह कहाँ जाएगी? मौसी हतप्रभ रह गई। तभी आई जी गर्ग साहब आए। वे मौसा के साथ काम कर चुके थे, मौसी को पहचानते थे। मौसी ने उनसे किसी वृद्धाश्रम में रहने की इच्छा प्रकट की।
गर्ग साहब ने आई ए एस एसोसिएशन के माध्यम से भारत से लेकर इंग्लैंड तक हंगामा खड़ा कर दिया। मीडिया ने भी भारत में ३ वृद्धों और स्त्रियों की दुर्दशा पर लगातार समाचार प्रसारित करवाए, चर्चाएँ करवाई। लोकलाज के भय से दिलीप परिवार के साथ मौसी के पास आया, पर उनके छटपटाने, गिड़गिड़ाने के बावजूद मौसी ने मिलने से मना कर दिया, उनका मुँह तक नहीं देखा।
मौसी लगभग सात वर्ष उस वृद्धाश्रम में रहीं परंतु रघुनाथ चौधरी और उनकी पत्नी के अतिरिक्त कभी किसी से नहीं मिलीं। न कभी उस चहारदीवारी से बाहर निकलीं। रघुनाथ चौधरी प्रत्येक रविवार अपनी पत्नी के साथ उनसे मिलने अवश्य जाते थे। अंत में अपने पार्थिव शरीर के अंतिम संस्कार का अधिकार भी मौसी ने अपने कोखजाये अर्थात पुत्र से छीनकर रघुनाथ चौधरी को ही दिया।
Conclusion
कोखजाया एक शक्तिशाली कहानी है जो पूर्वाग्रह और भेदभाव पर काबू पाने के बारे में है। यह हमें सिखाता है कि हर किसी के पास कुछ मूल्यवान पेशकश होती है, भले ही उनकी शारीरिक बनावट कैसी हो।
कहानी समुदाय के महत्व को भी उजागर करती है। जब ग्रामीण एक साथ काम करते हैं, तो वे किसी भी चुनौती को पार कर सकते हैं।
Kazhinjupoya Kalaghattam (The Lost Stage) is a short story by the renowned Malayalam writer N.P. Mohammed. It was first published in 1971 and has since been translated into several languages. The Summary is set in a small village in Wayanad, Kerala, India, and revolves around the lives of a group of villagers who are struggling to survive in the midst of poverty, hunger, and disease.
The story begins with the narrator, a young boy, introducing us to the main characters of the story, including his father, who is a landless laborer; his mother, who is a sickly woman; and his younger sister. The narrator describes their daily struggle to make ends meet, and the hardships they face due to their poverty and lack of social status.
Kazhinjupoya Kalaghattavum Summary in Malayalam
1952- ൽ തിരുവനന്തപുരത്ത് ജനനം. ചെറു കഥകളും നോവലുകളും രചിച്ചു കൊണ്ട് സാഹിത്യ രംഗത്തു വന്നു. ചെറു പ്രായം മുതൽ സിനിമയുടെ ആകർഷണം ഉണ്ടായിരുന്നെങ്കിലും സാമ്പത്തികമായ പിന്തുണ ഇല്ലാത്തതിനാൽ ചലച്ചിത്ര നിരൂപണത്തിൽ ശ്രദ്ധിച്ചു. 1982 – ൽ മികച്ച ചലച്ചിത്ര ഗ്രന്ഥത്തിനുള്ള ദേശീയ പുരസ്കാരം ലഭിച്ചു.
1982- ൽ : ‘നിധിയുടെ കഥ’. എ ന്ന ചിത്രത്തിലൂടെ, ഇദ്ദേഹം സംവിധാനത്തിലേക്ക് കടന്നു. മയൂരനൃത്തം, ദലമർമ്മരങ്ങൾ എന്നിവയാണ് ചില ചിത്രങ്ങൾ. നിരവധി ടെലിവിഷൻ പരമ്പരകളും ഡോക്യുമെന്ററികളും ടെലി സിനിമകളും നിർമ്മിച്ചു.
Conclusion:
Kazhinjupoya Kalaghattam is a powerful and moving story that offers a glimpse into the harsh realities of life in rural India. The story is a testament to the resilience and determination of the human spirit, even in the face of adversity.
The story also serves as a reminder of the importance of social justice and equality. It challenges us to think about the ways in which we can create a more just and equitable society for all.
RELATIONSHIP BETWEEN CINEMA AND SOCIETY: There is a reciprocal relationship between cinema and society. Cinema reflects society, while society shapes cinema. The interaction between these two elements creates an artistic cycle that reinforces each other.
Cinema reflects society
Movies are images of society. They reflect various problems and crises in the society. For example, the movie “Madhyavetta” talks about the caste system in India. The movie “Bhagyalakshmi” talks about discrimination against women in India.
Cinemayum Samoohavum Kalavupoya Cyclum Summary in Malayalam
ജീവിത രേഖ: ദേശീയ അവാർഡ് നേടിയ ദക്ഷിണേന്ത്യൻ ഡോക്യുമെന്ററി സംവിധായകനും എഴുത്തുകാരനുമാണ്. പ്രശസ്തമായ 5 ഡോകുമെന്ററികളും ഗ്രന്ഥങ്ങളും രചിച്ചിട്ടുണ്ട്. ‘സിനിമയുടെ വർത്തമാനം’ എന്ന ഗ്രന്ഥത്തിന് കേരള സർക്കാരിന്റെ പ്രത്യേക ജൂറി അവാർഡ് ലഭിച്ചിട്ടുണ്ട്. അദ്ദേഹത്തിന്റെ ദി ട്രാപ്പ്ഡ് ഡോക്യുമെന്ററിക്ക് മികച്ച ആ ന്താപ്പോളജി ഫിലിമിനുള്ള 1995 – ലെ ദേശീയ അവാർഡ് ലഭിച്ചിട്ടുണ്ട്. മികച്ച ഒരു പത്രപ്രവർത്തകനും ജേർണൽ എഴുത്തുകാരനും ആണ്.
സിനിമയുടെ ചരിത്രം
“Cinema is the fusion of all other arts” എന്നാണ് പറയപ്പെടുന്നത്. ഇന്ന് ലോകത്തുള്ള എല്ലാ കലാരൂപങ്ങളേയും, ഇനി വരു വാനിരിക്കുന്നവയേയും സിനിമ ഉൾക്കൊള്ളുന്നുണ്ട്. അതുകൊ ണ്ടാണ് സിനിമ കലയാണെന്ന് പറയുന്നത്. പുതിയ നൂറ്റാണ്ടിന്റെ
ഒരു നിശ്ചലദൃശ്യം തുടർച്ചയായി പലതവണ ആവർത്തിച്ചു കണ്ടു കൊണ്ടിരുന്നാൽ, ആ ദൃശ്യം ചലിക്കുന്നതായി അനുഭവപ്പെടും. (സിനിമയിൽ ഇതാണ് സംഭവിക്കുന്നത്. ഒരു സെക്കന്റിൽ 24 ഫെയിമുകൾ . നിശ്ചലദൃശ്യങ്ങൾ – തുടർച്ചയായി കടന്നുപോകുന്നതി നാൽ അവ ചലിക്കുന്നതായി തോന്നുന്നു. 1824 ഡിസംബർ 5ന് ഈ സിദ്ധാന്തം”Persistence of vision” (ദശാനുവർത്തന പ്രതി ഭാസം) എന്ന പേരിൽ പീറ്റർ മാർക്ക് റോജറ്റ് എന്നയാൾ ഇംഗ്ലണ്ടിലെ റോയൽ സൊസൈറ്റിക്ക് മുമ്പാകെ സമർപിച്ചു.
ബ്രിട്ടീഷുകാര നായ ഡോ. ജെ.എ.പാരിസ് തന്റെ Thaumatrop എന്ന കണ്ടുപിടുത്തത്തിലൂടെ ഇത് ശാസ്ത്രീയമായി തെളിയിക്കുകയും ചെയ്തു. ഒരു കാർഡുബോർഡു കഷണത്തിന്റെ രണ്ടറ്റത്തുമായി ഒരു പക്ഷിയേയും പക്ഷിക്കൂടിനേയും വരച്ചു ചേർത്തിട്ട് അത് ശക്തിയായി കറക്കുമ്പോൾ, ഒരറ്റത്തുനിന്ന് പക്ഷി മറ്റേയറ്റത്തുള്ള കൂട്ടിലേക്ക് പറന്നു കയറുന്നതായി തോന്നുന്നതാണ് ഈ സൂത്രവിദ്യ.
1500 കളിൽ തന്നെ ലോകത്തിന്റെ പല ഭാഗങ്ങളിലും ചലനചി തങ്ങൾക്കായുള്ള പരീക്ഷണങ്ങൾ ആരംഭിച്ചു കഴിഞ്ഞിരുന്നു. ഇറ്റലിക്കാരനായ ഗിരോലാമോ ഗാർഡനോ, ചുമരിലെ ഒരു ദ്വാര ത്തിലൂടെ ലെൻസുവഴി പുറത്തുള്ള ദൃശ്യചലനങ്ങൾ
മുറിയ്ക്ക് കത്തെ ചുമരിലേക്ക് പ്രതിഫലിപ്പിക്കുന്ന വിദ്യ പരീക്ഷിച്ചു. പിന്നീട്, വിവിധ ലെൻസുകൾ അടുക്കുകളായി ഒരു പെട്ടിയിൽ ഘടിപ്പിച്ച് പുറത്തെ ദ്യശ്യങ്ങൾ തലകീഴായി പ്രതിഫലിപ്പിക്കുന്ന Camera Obscura നിലവിൽ വന്നു. ഡച്ചു ശാസ്ത്രകാരനായ ക്രിസ്റ്റ്യൻ ഹെയ്ൻ സ് തന്റെ Magic Lantern-ലൂടെ ഗ്ലാസ്സിൽ ചിത്രങ്ങൾ വരച്ചു വലുതാക്കി 1 പ്രൊജക്റ്റ് ചെയ്യാൻ തുടങ്ങി. ഇന്നുള്ള സിനിമാ പ്രൊജക്ടറുകളുടെ ഒരു പ്രാഗ്രൂപമായിരുന്നു ഇത്.
പിന്നീടതിന്റെ പരിഷ്കൃതരൂപമായ Triunial Lanterns രംഗത്തെത്തി. ഒരേസമയം മൂന്ന് പ്രോജക്ടറുകൾ സൃഷ്ടിക്കുന്ന മൂന്ന് വ്യത്യസ്ത ദൃശ്യങ്ങൾ അടങ്ങിയതായിരുന്നു ഈ സംവിധാ നം. 1832ൽ ബെൽജിയംകാരനായ ഊർജതന്ത്രശാസ്ത്രജ്ഞൻ കണ്ടുപിടിച്ച Phena Kistoscope എന്ന യന്ത്രത്തിലൂടെ ഒരു ഡിസ്ക്കിൽ വരച്ചുചേർത്ത ചിത്രങ്ങൾ കണ്ണാടിക്കു മുൻപിൽ വച്ചുകറക്കി പുറത്തെ ഒരു ദ്വാരത്തിലൂടെ നോക്കിക്കാണുന്ന തരം ചലച്ചിത്രമുണ്ടാക്കി. പിന്നീട് Phanta scope, Stroboscope, Zoetrope, Filoscope (Flip book) gm160BOM വിവിധങ്ങളായ ചലനചിത്ര യന്ത്രങ്ങൾ കണ്ടുപിടിക്കപ്പെട്ടു. ശാസ്ത്രജ്ഞർക്ക് ചലനചിത്രങ്ങളോടുള്ള അന്വേഷണത്വരയാ
യിരുന്നു ഇതിനൊക്കെ പുറകിൽ. 1841ൽ ഫോട്ടോഗ്രാഫി ശാസ്ത്രീയമായി നിർവ്വചിക്കപ്പെട്ടതോടെ ഇത്തരം ശ്രമങ്ങൾക്ക് ആക്കം കൂടി. സിൽവർ നൈട്രേറ്റിന് പ്രകാ ശവും നിഴലും ഒപ്പിയെടുക്കാനാവും എന്ന കണ്ടുപിടിത്തം ചിത്രി കരണരീതിയെ മാറ്റിമറിച്ചു. 1872-ൽ നടന്ന ‘മെയ്ബ്രിഡ്ജ് പരീക്ഷണം ചലച്ചിത്ര നിർമ്മിതി യുടെ ചരിത്രത്തിലെ വലിയൊരു നാഴികക്കല്ലായിത്തീർന്നു.
കാലിഫോർണിയായിലെ ഗവർണറായിരുന്ന ലേലൻഡ് സ്റ്റാൻഫോർഡ് ഒരിയ്ക്കൽ ഒരു പന്തയത്തിലേർപ്പെട്ടു. ഒരു പന്തയക്കുതിര കുതി ച്ചുപായുന്ന സമയത്ത് അതിന്റെ നാലുകാലുകളും ഒരേ സമയം തറയിൽ തൊടുകയില്ലെന്നതായിരുന്നു പന്തയവിഷയം. ഇതു തെളിയിക്കാനായി അക്കാലത്തെ പ്രശസ്ത ഫോട്ടോഗ്രാഫറായിരുന്ന Edward Muybridge എന്നയാളുടെ സഹായം മേയർ ആവശ്യ പ്പെട്ടു.
ജോൺ ഐസക്സ് എന്ന എഞ്ചിനീയറുടെ സഹായ ത്തോടെ ഈ വെല്ലുവിളി ഏറ്റെടുത്തമെയ്ബ്രിഡ്ജ്, പന്തയക്കു തിര പായുന്ന വഴിയിൽ 24 സ്റ്റിൽ ക്യാമറകൾ തുല്യ അകലത്തിൽ നിരത്തിവച്ചു. അവയുടെ ക്ലിക്ക് ബട്ടണുകളിൽ ഘടിപ്പിച്ച് ചരടു കൾ വഴിക്കു കുറുകെ
കെട്ടിവച്ചിരുന്നു. കുതിര പായുമ്പോൾ ഇവയിൽ തട്ടി ക്യാമറകൾ ഓണാകും. റോൾ ഫിലിമും മൂവി ക്യാമ റയുമൊന്നും കണ്ടുപിടിച്ചിട്ടില്ലായിരുന്ന അക്കാലത്ത് ഇതൊരു പുതുമയുള്ള പരീക്ഷണമായിരുന്നു. പിന്നീട് ഈ പരീക്ഷണം Zoopraxinoscope എന്ന പേരിൽ ഒരു പൊതു പ്രദർശന സംവിധാനമാക്കി മാറ്റുകയുണ്ടായി.
മെയ്ബ്രിഡ്ജ് എടുത്ത 24 നിശ്ചല ചിത്ര വൃത്താകൃതിയിലുള്ള ഒരു ഗ്ലാസ്സിനു ചുറ്റുമൊട്ടിച്ച് ഒരു വിളക്കിനു മുൻപിൽ വച്ച് വട്ടത്തിൽ കറക്കി ചലനചിത്രമുണ്ടാക്കു കയായിരുന്നു ഇതിന്റെ രീതി. മറ്റു
ചലച്ചിത്രങ്ങളും ഈ രീതിയിൽ പ്രദർശിപ്പിയ്ക്കപ്പെട്ടു. 1881- ൽ മെയ് ബ്രിഡ്ജ് ചലച്ചിത്രം കണ്ട് എറ്റിനേ ജൂൾസ് മാരി ചിന്തിച്ചത് എന്തിന് വിവിധ ക്യാമറകൾ ഉപയോഗിച്ച് ചിത്രീകരിക്കുന്നു എന്നതാണ്.
ഒരൊറ്റ ക്യാമറയിലൂടെ തന്നെ ചലനചിത്ര ങ്ങൾ ചിത്രീകരിക്കുന്നതിനായുള്ള അദ്ദേഹത്തിന്റെ പരീക്ഷണ ങ്ങൾ വിജയിച്ചത് Photographic Revolver എന്ന ഉപകരണ ത്തിന്റെ നിർമ്മിതിയിലാണ്. ട്രിഗർ വലിക്കുമ്പോൾ ക്യാമറയിലെ ഒരു ഷട്ടർ നിരന്തരമായി ചലിച്ച് സെക്കന്റിൽ 12 ചിത്രങ്ങൾ
വീതം തുടർച്ചയായി എടുക്കാൻ കഴിയുന്ന ഒരു സംവിധാനമായിരുന്നു ഇതിൽ. യന്ത്രത്തിന്റെ പ്രത്യേക ആകൃതിയും, കാഞ്ചി വലിക്കുന്ന സമ്പ്രദായവും ചേർന്ന് ഇതുപയോഗിച്ചുള്ള ചിത്രീകരണത്തെ ആദ്യമായി, ‘ഷൂട്ടിംഗ് എന്നുവിളിച്ചു. മയ്ബ്രിഡ്ജിന്റെ സഹായിയായിരുന്ന തോമസ് എക്കിൻസ് 1884- ൽ ഒരു ഏകചലനചിത്ര ക്യാമറ നിർമ്മിച്ചു.
ജർമ്മനിയിലെ ഓട്ടോമർ ആൻഷുസ് എന്നയാൾ തന്റെ Tachyscope എന്ന യന്ത്രത്തിലൂടെ ചലിക്കുന്ന മനുഷ്യരേയും മൃഗങ്ങളേയുമൊക്കെ പ്രദർശിപ്പിച്ചു. രണ്ടു വർഷം ഷം കഴിഞ്ഞ് Electro Tachyscope എന്ന പോല വികസിപ്പിച്ചെടുത്ത് പൊതുപ്രദർശന ങ്ങൾക്കായി ഉപയോഗിക്കപ്പെട്ടു. ഒരു പെനിയായിരുന്നു പ്രദർശ നഫീസ്.
1887 – ൽ മാരി നുറുചിത്രങ്ങൾ വരെ റിക്കാർഡു ചെയ്യാനാവുന്ന തരം ക്യാമറ കണ്ടുപിടിച്ചു. പ്രദർശനത്തിനുപയോഗിച്ചത് മയി ഡ്ജിന്റെ പ്രൊജക്ടറും. 1890 – ൽ കുറേക്കൂടി യാഥാർത്ഥ്യവും, കൃത്യതയുള്ളതുമായ ക്യാമറ അദ്ദേഹം നിർമ്മിച്ചു. 1888- ൽ 1ബിസർ കാരനായ വില്യം ഫീസ് ഗ്രീൻ Kinematrograph കണ്ടു പിടിച്ചു. ഒരു റോൾ സെല്ലുലോയ്ഡ് ഫിലിമിലേക്ക്
ചിത്രങ്ങൾ തുടർച്ചയായി ചിത്രീകരിക്കുന്ന രീതി ആദ്യമായി ഇദ്ദേഹമാണ് കണ്ടുപിടിച്ചത്. 50 അടി നീളമുള്ള ഫിലിമായിരുന്നു തുടക്കത്തിൽ. ഇന്നുള്ള സിനിമാ ചിത്രീകരണപ്രദർശന സൗകര്യങ്ങളുടെ യഥാർത്ഥ തുടക്കക്കാരൻ ഫീസീനാണെന്നു പറയാം. (അ ദ്ദേഹത്തിന്റെകണ്ടുപിടുത്തങ്ങൾ പിന്നീട് വന്നവർ പ്രയോജന പ്പെടുത്തി വിജയിച്ചപ്പോഴും വില്യമിന്റെ ജീവിതം ഒരു ദുരന്തമാ വുകയായിരുന്നു.
സിനിമയ്ക്കുവേണ്ടിയുള്ള ജീവാർപ്പണത്തി നിടയിൽ വലിയ കടബാധ്യതയും ദാരിദ്ര്യവും ജയിൽവാസവു മൊക്കെ അദ്ദേഹത്തിന് നേരിടേണ്ടിവന്നു. സിനിമയുടെ ചരിത്ര ത്തിലെ ആദ്യ രക്തസാക്ഷിയായി വില്യം ഫ്രീസ്റ്റീനിനെ കണ ക്കാക്കുന്നു.) 1888- ൽ തന്നെ ബ്രിട്ടനിലെ ഫ്രഞ്ച് കുടിയേറ്റക്കാരനായ ലൂയിസ് അഗസ്റ്റിൻ ലെ പ്രിൻസ് എന്നയാൾ കൂടുതൽ കൃത്യതയോടെ അനു ‘ ക്രമമായി പ്രതിബിംബചലനം സാധ്യമാക്കുന്ന ഒരു ക്യാമറ വികസിപ്പിച്ചെടുത്തു.
1889- ലാണ് അമേരിക്കൻ വ്യാവസായിക സിനിമയ്ക്ക് അടിത്തറ പാകിയ വിഖ്യാത ശാസ്ത്രജ്ഞൻ തോമസ് ആൽവാ എഡിസൺ രംഗത്തെത്തുന്നത്. മരണസമയത്ത് വില്യം ഫിസിന് തന്റെ ചലച്ചിത്ര പരീക്ഷണ
പ്രബന്ധങ്ങൾ എഡിസണ് അയച്ചുകൊടു ത്തിട്ടുണ്ടായിരുന്നു. ജൂൾസാരിയുടെ ക്യാമറയുടെ മോഡലും എഡിസണ് പരീക്ഷണാടിത്തറയായി. ഇംഗ്ലണ്ടുകാരനായ വില്യം കെന്നഡി ലാറി ഡിക്സന്റെ സഹായത്തോടെ എഡിസൺ ഇന്നത്തെ മൂവി ക്യാമറയുടെ പ്രാഗ്രൂപമായ kinetograph നിർമ്മിച്ചു. ഫിലിമിൽ 35mm എന്നത് ഒരു പൊതുഅളവുമായി.
ആ വർഷം തന്നെയാണ് അമേരിക്കക്കാരായ ജോർജ്ജ് ഈസ്റ്റ്മാൻ സംവേദന ക്ഷമത കൂടിയ പ്രത്യേകതരം സെല്ലുലോയ്ഡ് റോൾ ഫിലിം രംഗത്തവതരിപ്പിച്ചതും. അതിനു മുൻപു തന്നെ അനവധി നടന്നിരുന്നു. ഫിലിമിൽ പരീക്ഷണങ്ങൾ സെല്ലുലോയ്ഡ് 1869- ൽ ).W. ഹയർ ഫിലിം ഉണ്ടാ ക്കി. 1888- ൽ ആദ്യത്തെ റോൾഫിലിം ഫ്രഞ്ചുകാരനായ ലൂയിസ് ലി പിയറെ കണ്ടുപിടിച്ചു.
1922- ൽ 9.5mm ഫിലിമും, 1923-ൽ 16mm ഫിലിമും 1930- ൽ 18mm എന്ന ഫിലിമും കണ്ടുപിടിക്കതപ്പെട്ടു. ഡിക്സൺ ഫിലിമിന്റെ വശങ്ങളിൽ sproket holes (ക്യാമറയിലേയും പ്രൊജക്ടറിലേയും പൽചക്രങ്ങളിൽ ഫിലിം കൃത്യ മായി കറങ്ങുന്നതിനുള്ള എളുപ്പത്തിനായി നിർമ്മിച്ചു. 1891- ൽ കൈനറ്റോസ്കോപ്പ് ചിത്രങ്ങൾക്കൊപ്പം
“ഫോണോ ഗ്രാഫ് ” യന്ത ത്തിന്റെ സഹായത്തോടെ ശബ്ദവും കൂടി കേൾപ്പിച്ച് പ്രദർശിപ്പിക്കുന്ന Peep parlours നിലവിൽ വന്നു. മരംകൊണ്ടു നിർമ്മിച്ച ഒരു പെട്ടിയുടെ ഒരു വശത്തുണ്ടാക്കിയ ഒരു ദ്വാരത്തിലൂടെ ഒറ്റക്കണ്ണുകൊണ്ട് ‘ഒളിഞ്ഞുനോക്കി കാണുന്ന ചിത്രപ്രദർശന രീതിയായിരുന്നു ഇത്. നമ്മുടെ ഇന്നത്തെ സിനിമാ തിയ്യേറ്ററുകളുടെ ഒരു ആദ്യകലാരൂപം.
എങ്കിലും നിയതമായ അർത്ഥ ത്തിലുള്ള ചരിത്ര ത്തിലെ ആദ്യത്തെ സിനിമാക്കൊട്ടക എഡിസന്റെ Black Maria ആയി രുന്നു. അമേരിക്കയിലെ സാജർസിയിൽ വെസ് ഓറഞ്ച് എന്ന എഡിസന്റെ പരീക്ഷണശാലയോടു ചേർന്ന് 1893 ൽ ആണ് ഇതിന്റെ ആരംഭം. എഡിസന്റെ കോമാളിയായ അസിസ്റ്റന്റ് ഫ്രഡ് (Red Ot’s Sneeze) ളുമായിരുന്നു ഈ ഒറ്ററിൽ – ഒറ്റദ്യശ്യ ചലച്ചിത്രത്തിൽ.
അക്കാലത്ത് എല്ലാം 50 അടി ദൈർഘ്യം മാത്രമുള്ള ഒറ്ററിൽ ചിത്ര ങ്ങളായിരുന്നു. തുടർന്ന് ക്യാമറയിലും ഫിലിമിലുമൊക്കെ ഒരു പാട് പരീക്ഷണനിരീക്ഷണങ്ങൾ ലോകത്തിന്റെ നാനാഭാഗത്തു മുണ്ടാ യി. അമേരിക്കക്കാരനായ ഹെർമൻ കാ റുടെ Mutoscope-ഉം, ജെങ്കിൻസ് – ആർമതിന്റെ Vitascope-ഉം, ബ്രിട്ടനിലെ റോബർ
ഡബ്ലൂ. പോളും ബർട്ട് എക്കേഴ്സ്റ്റും ചേർന്നു കണ്ടുപിടിച്ച് പുതിയ മോഷൻ പിക്ചർ ക്യാമറയും, Biograph projector-ഉം മറ്റും ഇത്തരത്തിലുള്ള ശ്രമങ്ങളായിരുന്നു. 1892- ൽ ജി. ബൗളി എന്നയാൾ ഫ്രാൻസിൽ ‘Cinematography’ എന്ന പദത്തിന് പേറ്റന്റ് നേടി. ക്യാമറകൾക്കും ചലച്ചിത്ര പ്രദർശന ങ്ങൾക്കുമൊക്കെ അപ്പോഴേക്കും ലോകം മുഴുവൻ സാധ്യത കളും ആവശ്യക്കാരും വർദ്ധിച്ചുവന്നു.
ഒപ്പം ഇവയിൽ പുതിയ പത് കണ്ടുപിടിത്തങ്ങളും. ഇത്തരുണത്തിലാണ് സൗന്ദര്യശാസ്ത്രപരമായി വിശ്വസിനിമയുടെ “അവതാരകരായി ത്തീർന്ന ലൂമിയർ സഹോദ ര ന്മാരുടെ’ (Lumiere Brothers) രംഗപ്രവേശം.
ലിയോണിലെ ലൂമിയർ ഫാക്ടറി ഉടമയായിരുന്ന ആന്റണി ലുമിയറുടെ മക്കളായ ലൂയി ലൂമിയറും അഗസ് ലുമിയറും (Louis and Auguste Lumiere) praxinoscopeഉം എഡിസന്റെ കൈനെറ്റോസ്കോപ്പും അടിസ്ഥാനമാക്കി കനം കുറഞ്ഞ ഒരുതരം ക്യാമറ നിർമ്മിച്ച് ഈസ്റ്റ്മാൻ ഫിലിം റോളുക ളുപയോഗിച്ച്, ആദ്യമായി മനുഷ്യരൂപങ്ങളെ അവരുടെ യഥാർത്ഥ ദൃശ്യവലുപ്പത്തിലും ഔട്ട്ഡോർ ദൃശ്യങ്ങളിലും ചിത്രീകരിക്കാനും പ്രദർശിപ്പിക്കാനും തുടങ്ങി.
1895 ഡിസംബർ 28- ന് പാരീസിലെ ‘ഗ്രാന്റ് കഫേ’യിലെ മുപ്പത്തഞ്ചുപേരുടെ സദസ്സിനു മുൻപിൽ അവതരിപ്പിയ്ക്കപ്പെട്ട ആദ്യപ്രദർശനത്തിലൂടെ സിനിമയെന്ന സാങ്കേതിക കലയുടെ പിറവി ലോകം അത്ഭുതത്തോടെ കണ്ടു mlang. ‘The Baby’s meal, Arrival of the Train, Scenes from the Board of Leons, The Girl Watching the Garden, Workers Exiting the Lumiere Factory’ ngm ഒറ്ററിൽ ചിത്രങ്ങളായിരുന്നു ഇhiere നിർമ്മാണ- പ്രദർശന സഞ്ചയത്തിൽ.
സിനിമ എന്ന കലയുടെ വിപണി സാധ്യത കണ്ട റിഞ്ഞ ലൂമിയർ സഹോദരർ തങ്ങൾ നിർമ്മിച്ച സിനിമകളുമായി ലോകം മുഴുവൻ ചുറ്റി സഞ്ചരിച്ചു. 1895 ജൂലായ് 7- ന് അവർ ഇന്ത്യയിലുമെത്തി. ബോംബെയിലെ വാട്സൺ ഹോട്ടലിലായി രുന്നു ആദ്യപ്രദർശനം. പിന്നീടുള്ള കാലം ലോകസിനിമയിൽ പരീക്ഷണങ്ങളുടേതാ യിരുന്നു.
സീനിൽ തീവണ്ടി പാഞ്ഞുവരുന്നതും മറ്റും ആദ്യ മായി കണ്ടപ്പോൾ അമ്പരന്ന് തിയേറ്ററിൽ നിന്നിറങ്ങി ഓടുകയും മറ്റും ചെയ്ത ആദ്യകാല പ്രേക്ഷകരുടെ കൗതുകങ്ങളും കാഴ്ച യുടെ ശീലങ്ങളും മുന്നോട്ടുപോയി. ഒറ്ററീൽ ചിത്രങ്ങൾ അപ്പോ ഴേക്കും കാണികളിൽ വിരസത
നിറച്ചുതുടങ്ങിയിരുന്നു. അവർ പുതുമയ്ക്കും പ്രതിഭയ്ക്കും വേണ്ടിയുള്ള അന്വേഷണങ്ങൾ തുടങ്ങി. 1896 – ൽ ലോകത്തിലെ ആദ്യ കഥാചിത്രമായ The Soldiers of courtship നിർമ്മിക്കപ്പെട്ടു. 1902 – ൽ ഫാൻസിൽ, ആദ്യത്തെ സയൻസ് ഫിക്ഷൻ സിനിമയായ A Trip to the Moon ജോർജ്ജ് മെലീസ് നിർമ്മിച്ചു.
1903ൽ സൗന്ദര്യ ശാസ്താന ദണ് ഡങ്ങൾ മുഴുവനായും പാലിയ്ക്കപ്പെട്ട ആദ്യത്തെ സമ്പൂർണ്ണ ഫീച്ചർ സിനിമയായ The Great Train Robbery നിർമ്മിക്കപ്പെട്ടു. എഡ്വിൻ എസ്. പോർട്ടർ ആയി രുന്നു 12 മിനിറ്റ് ദൈർഘ്യമുളള ഈ ചിത്രത്തിന്റെ സംവിധായ കൻ. ആദിമദ്ധ്യാന്തപ്പൊരുത്തവും നിയതമായ ഒരു കഥാഘട നയുമുള്ള ലക്ഷണയുക്തമായ ആദ്യ ചലച്ചിത്രം.
കുതിരപ്പുറത്തെത്തുന്ന ഒരു കൂട്ടം കൊള്ളക്കാർ സ്റ്റേഷൻ മാസ്റ്ററെ കെട്ടി യിട്ട് ട്രെയിൻ കൊള്ളയടിയ്ക്കുന്നതും, മകളുടെ തന്ത്രപരമായ ഇടപെടലിലൂടെ പോലീസെത്തി ഏറ്റുമുട്ടൽ നടത്തുന്നതും മറ്റുമാണ് കഥാതന്തു. വൈൽഡ്/വെസ്റ്റേൺ സിനിമകളുടെ തുടക്കവും ഇവിടെയാണ്. 1913ൽ ലോകത്തെ ആദ്യ
സൂപ്പർഹിറ്റ് സിനിമയുണ്ടായി. അമേരിക്കൻ വേശ്യാവൃത്തിയെക്കുറിച്ചുള്ള ജോർജ്ജ് ലോണി ടക്കുടെ Traffic in Dolls. പിന്നീട് ലെവ് കുളക്കോവ്, ഗ്രിഫിത്ത്, ഐസൻസ്റ്റീൻ, പുദേവ്കിൻ തുടങ്ങിയ ചലച്ചിത്ര വൈയാകരണന്മാരിലൂടെ സിനിമ അതിന്റെ സൗന്ദര്യശാസ്ത്ര മാനദണ്ഡങ്ങൾ പടുത്തുയർത്തി. ചാപ്ലിന്റേയും ഹിച്ച്കോക്കിന്റേയും മറ്റും നിശ്ശബ്ദ സിനിമകൾ | നിത്യവിസ്മയങ ലോകസിനിമയിലെളായി മാറി.
Birth of a Nation, Intolerance, Benhur, Battleship Potemkin, The Mother, Bicycle Thieves, Rashamon, Seventh Seal കാവ്യങ്ങൾ സിനിമയെന്ന കലയുടെ ശക്തി സൗന്ദര്യങ്ങളായി. ചാപ്ലിൻ, വാൾട്ട് ഡിസ്നി, ജോൺ ഫോർഡ്, വിക്ടോറിയ ഡിസി, അകിരാ കുറോസോവ, ഇൻമർ ബർമൻ, ഡേവിഡ് ലീൻ, റോബർട്ട് ഫ്ളാവർട്ടി, ജോൺ ഗ്രിയേഴ്സൺ തുടങ്ങി പല പ്രഗത്ഭ സംവിധായകരും ലോക സിനിമയെ സമ്പന്നമാക്കി. സിനിമയാകട്ടെ നിശ്ശബ്ദതയിൽ നിന്ന് ശബ്ദത്തിന്റെ ലേക്കും, ബ്ലാക്ക് ആന്റ് ധാരാളിത്തത്തി വൈറ്റിൽ നിന്ന് വർണ്ണചിത്രങ്ങളിലേക്കും വഴിമാറി.
ശബ്ദസിനിമ
ചലച്ചിത്ര ചരിത്രവികാസങ്ങൾക്കിടെ ഇതുവരെയും സിനിമ നിർ
ബദ്യശ്യങ്ങളിലൂടെയായിരുന്നു ജനങ്ങളോട് സംവദിച്ചുകൊ ണ്ടിരുന്നത്. ആദ്യകാലങ്ങളിൽ വ്യാഖ്യാതാക്കളും പിന്നണി സംഗീതജ്ഞരും തിരശ്ശീലക്കു പുറകിലിരുന്ന സിനിമയ്ക്ക് ശബ്ദം നൽകിക്കൊണ്ടിരുന്നു, നാടകത്തിലേതെന്നപോലെ. പ്രധാന സംഭാഷണങ്ങളൊക്കെ എഴുതി കാണിക്കും – Sub titles).
നിശ്ശബ്ദസിനിമയുടെ കാലത്ത് ഈ സംഗീതം വളരെ പ്രധാന വുമായിരുന്നു. എന്നിട്ടും ചാപ്ലിനടക്കമുള്ള പല പ്രഗത്ഭ ചലച്ചി ത്രകാരന്മാരും സിനിമയിൽ ശബ്ദം വരുന്നതിനെ വല്ലാതെ എതിർത്തിരുന്നു. ദൃശ്യങ്ങളുടെ ശക്തി സൗന്ദര്യങ്ങളെ ശബ്ദ ത്തിന്റെ കടന്നുവരവ് നശിപ്പിക്കുമെന്നായിരുന്നു അവരുടെ ഭയം. എങ്കിലും ലോകത്തിന്റെ പല കോണുകളിലും സിനിമ യിലെ ശബ്ദവിന്യാസത്തിനായുള്ള പരീക്ഷണങ്ങൾ നിർബാധം തുടരുകയുണ്ടായി.
എഡിസൺ തന്റെ ചിത്രങ്ങളോടൊപ്പം ശബ്ദപഥം പ്രത്യേകം ഡിസ്കകൾ ഉപയോഗിച്ച് ഫോണോഗ്രാ ഫിലൂടെ കേൾപ്പിച്ചു. പിന്നീടത് ‘ഗ്രാമഫോൺ ആയി. ഫിലിമി നോടൊപ്പം കറങ്ങി ശബ്ദമുണ്ടാക്കുന്ന ‘ബെർലിനർ ഗ്രാമ, ഫോൺ’ 1896 – ൽ ചാൾസ് പാത്തേ നിർമ്മിച്ചു. ഫ്രാൻസിലേ ലിയോൺ ഗോമണ്ട് തന്റെ ‘ഗോമണ്ട്
കാണാഫോണി ലൂടെ ദൃശ്യങ്ങൾക്കൊപ്പം പ്രത്യേക ശബ്ദപഥവും ചലിപ്പിച്ചു. 1907ൽ ദേ ഫോറസ്റ്റ് എന്നയാൾ ‘ഓഡിയോൺ ട്യൂബിലൂടെയുള്ള ശബ്ദം സ്പീക്കറുകളിലൂടെ കേൾപ്പിച്ചു. ഫിലിമിൽ തന്നെ ശബ്ദം രേഖപ്പെടുത്താനുള്ള വിവിധ പരീക്ഷ ണങ്ങൾക്കായി പലരും ശ്രമിച്ചു. ഓർലാന്റോ കെല്ലം, യൂജിൻ ലോസ്റ്റ്, സെൻ ബെർഗ്ലാ തുടങ്ങി നിരവധിപേർ ഇതിനുള്ള പരീ ക്ഷണങ്ങളിൽ
പിന്നീട് ശാസ്ത്രീയമായി ഇതു തെളിയിച്ചത് തോമസ് ബി ലാബർട്ട് എന്ന ശാസ്ത്രജ്ഞനാണ്. ലീ ഫോറസ്റ്റ് കണ്ടുപിടിച്ച ഫോണോ ഫിലി മിലാണിത് റെക്കോർഡ് ചെയ് ത്. ഇത്തരത്തിൽ ഫിലിമിൽ ശബ്ദം രേഖപ്പെടുത്തിയ ആദ്യ ചലച്ചിത്രമെന്ന് ഖ്യാതി 1926- ൽ നിർമ്മിക്കപ്പെട്ട ‘ഡോ ജുവാൻ എന്ന സിനിമയ്ക്കാണ്.
ദൃശ്യത്തോടൊപ്പം ശബ്ദപഥവും ഫിലിമിൽ രേഖ പ്പെടുത്തിയ ലോകത്തെ ആദ്യസിനിമ Jazz Singer (1927) ആണ്, സിനിമയിലെ നായക കഥാപാത്രമായ അൽ ജോൺസൺ പറയുന്നു ‘ഒരു മിനിറ്റ്, ടു – ടു ആട് ടുട്സി എന്ന ഗാനം കേൾക്കണോ – ഇതാ കേട്ടോളൂ’ എന്ന വിധമുള്ള ആദ്യ ശബ്ദ പഥം 1927 ഒക്ടോബർ 6ന് സിനിമയുടെ ചരിത്രത്തിന്റെ ഭാഗ
മായി മാറി. മൂന്ന് പാട്ടുകളും ഈ ചിത്രത്തിലുണ്ടായിരുന്നു. 1928 – ൽ നിർമ്മിക്കപ്പെട്ട യൂണിവേഴ്സൽ പിക്ച്ചേഴ്സിന്റെ Lights of New York ആണ് ആദ്യ മുഴുനീള സംസാര ചിത്രം. ബോക്സോഫീസ് വിജയമായിരുന്നു ചിത്രത്തിന്.
ആ വർഷം തന്നെ വാൾട്ട് ഡിസ്നി തന്റെ “Steamboat Willie’ എന്ന ആദ്യ മിക്കിമൗസ് കാർട്ടൂൺ ശബ്ദചിത്രം അവതരിപ്പിച്ചു. 1929 – ൽ ഇന്ത്യയിലെ ആദ്യശബ്ദ ചിത്രപ്രദർശനം നടന്നു. Melody of Love. 1931- ൽ ഹിന്ദി- ഉറുദു ഭാഷകളിൽ ഇന്ത്യ യിലെ ആദ്യ ശബ്ദചിത്രം ‘ആലം ആര് നിർമ്മിക്കപ്പെട്ടു.
ആർദേശിർ ഇറാൻ ശബ്ദ സംവിധായകൻ. മലയാളത്തിലെ ആദ ശബ്ദചിത്രം ‘ബാലൻ’ (1936) എസ്. നെട്ടാണിയായിരുന്നു ചലച്ചിത്രകാരൻ.
വർണസിനിമ
സിനിമയിൽ ശബ്ദം രേഖപ്പെടുത്തപ്പെട്ട കാലം മുതൽക്കേ തന്നെ കളർ സിനിമയ്ക്കായുള്ള ശ്രമങ്ങളും ആരംഭിച്ചിരുന്നു. ഒരുപക്ഷേ. Kinema Colour, Prismo Colour തുടങ്ങി പലവിധ സംവിധാനങ്ങൾ ആദ്യകാലങ്ങളിൽ പരീക്ഷി വൈറ്റ് ഫിലിമിൽ തന്നെ യ്ക്കപ്പെട്ടിരുന്നു. ബ്ലാക്ക് മുമ്പിൽ ദൃശ്യങ്ങൾ ചിത്രീകരിച്ചിട്ട് അവയ്ക്കു വിവിധ വർണ്ണങ്ങളിലുളള കളർച്ചില്ലുകൾ (filtes)
വച്ച് പ്രൊജക്ഷൻ നടത്തുന്ന വിദ്യയായി രുന്നു ആദ്യകാലങ്ങളിൽ. പിന്നീട് ടെക്നിക്കുളർ (3 strip techni colour) പ്രാഥമിക നിറങ്ങളായ നീല, ചുവപ്പ്, പച്ച എന്നിവ) സമ്പ്ര ദായം ഉടലെടുത്തു. ഹോളിവുഡ് സിനിമകളിലും മറ്റും അതിനു മുൻപുതന്നെ 2 strip technicolour ഉപയോഗിച്ചിരുന്നു. പിന്നീട് വാൾട്ട് ഡിസ്നിയുടെ കാർട്ടൂൺ ചിത്രങ്ങളിലായിരുന്നു വർണ്ണ സങ്കലനം സർഗാത്മകമായി ഉപയോഗിക്കപ്പെട്ട
നൂതനമായ അവരതിനായി വിനിയോഗിച്ചു. Flowers of Trees (1932), The Three Little Pigs (1933) തുടങ്ങിയവ ഇതിനുദാഹരണങ്ങളാണ്. ലോകത്തിലെ ആദ്യത്തെ സമ്പൂർണ്ണ മായ വർണ്ണചിത്രം win mozos Silly Symphonies (Flowes and Trees) ആണ്.
ആദ്യത്തെ 3- സിപ് ടെക്നികളർ’ മുഴു Becky Sharp 8mm, 16mm, 35mm, സിനിമാസ്കോപ്പ്, 70mm, 3D, സൂപ്പർസ്കോപ്പ്, റിയൽസ്കോപ്പ്, വിസ്താവിഷൻ, പാനാവിഷൻ എന്നിങ്ങനേയും, ക്യാമറയിലും പ്രൊജക്ഷനിലും കൈനെറ്റോസ്കോപ്പിൽ തുടങ്ങി ഡിജിറ്റൽ സിസ്റ്റം വരെയും സിനിമയുടെ സാങ്കേതികത വളർന്നു.
ഇന്ത്യൻ സിനിമ
ലൂമിയർ സഹോദരങ്ങളുടെ ബോംബെ വാട്സൺ ഹോട്ടലിലെ ആദ്യ സിനിമാപ്രദർശനത്തോടെ (1896) ഇന്ത്യൻ ചലച്ചിത്രനിർമ്മാതാക്കളുടേയും ആവിർഭാവമായി. എവിടെയുമെന്നതുപോലെ ലഘുചിത്രങ്ങളുടെ നിർമ്മാണമായിരുന്നു തുടക്കം.
ഹരിശ്ചന്ദ്ര സഖാരാമ ജഡ്വഡേക്കർ എന്നയാൾ ലണ്ടനിൽ നിന്നുള്ള ക്യാമറ യുപയോഗിച്ച് അക്കാലത്ത് ബോംബെയിൽ നടന്ന ഒരു ഗുസ്തി മത്സരം ചിത്രീകരിച്ചതാവണം ആദ്യശ്രമം.
ആദ്യ ഇന്ത്യൻ നിയതമായ സിനിമ 1912-ൽ ആർ.ജെ.തോർ നിർമ്മിച്ച “പുണ്ഡലിക് ആണ്. 1913- ൽ “രാജാ ഹരിശ്ചന്ദ് എന്ന 5-റീൽ സിനിമ നിർമ്മിച്ചുകൊണ്ട് ഇന്ത്യൻ സിനിമയുടെ പിതാവായി കണക്കാക്കപ്പെടുന്ന ദാദാസാഹേബ് ഫാൽക്കെ രംഗത്തെത്തി. തദ്ദേ ശീയമായി നിർമ്മിക്കപ്പെട്ട ആദ്യ ഇന്ത്യൻ സിനിമയാണിത്.
സിനിമ – സംസ്കാരവാഹിയോ? സംസ്കാര സംഹാരിയാ ആധുനികകാലത്തെ ഏറ്റവും പ്രചാരമുളള ദൃശ്യകലയെന്ന നിലയ്ക്ക് സിനിമ മനുഷ്യസംസ്ക്കാരത്തിൽ ചെലുത്തുന്ന സ്വാധീനം
വ്യാപകമാണ്. സിനിമയ്ക്ക് വിഷയീഭവിക്കാവുന്ന വിഭ വങ്ങളില്ല. മനുഷ്യന്റെ ചിന്തയെയും ചെയ്തികളേയും സിനിമ ചിലപ്പോഴെല്ലാം ശക്തമായി സ്വാധീനിക്കാറുണ്ട്. മനുഷ്യജീവിത ത്തിൽ അസാമാന്യമെന്നും അത്ഭുതകരമെന്നും വിളിക്കപ്പെടുന്ന പലതിനെയും സിനിമ ആവിഷ്ക്കരിക്കുന്നു.
ഒരു ദൃശ്യകലാരു പമെന്ന നിലയിൽ സിനിമ നിർവഹിക്കുന്ന വൻപഷക ശ്രദ്ധ തന്നെയാണ്; സംസ്കാരത്തെ വളർത്താനും ഇകഴ്ത്താനും കാരണമാകുന്നത്. 70കളിൽ അമേരിക്കയിൽ പ്രബലമായിരുന്നരതിക്രീഡാകേന്ദ്രീകൃതമായിരുന് ന സിനിമാ വ്യവസായം അമേരിക്കൻ സംസ്കാരത്തിൽ ദുഷ്പ്രേരണകൾക്ക് കാരണമായി.
ഇത് യൂറോപ്യൻ സിനിമാലോകത്തും, പിൽക്കാലത്ത് ലാറ്റിനമേരിക്കയിലും തുടർന്ന് ഏഷ്യൻ ആഫ്രിക്കൻ രാജ്യങ്ങളിലേക്കും നീണ്ടു. പാശ്ചാത്യരാജ്യങ്ങളിൽ അശ്ലീലസിനിമകൾ കാണുന്നതി നുള്ള നിയന്ത്രണങ്ങൾ ലഘൂകരിക്കപ്പെട്ട നിലയിലാണ്. അതു കൊണ്ടുതന്നെ ഇത്തരം സിനിമകൾക്കുളള പ്രേക്ഷകർ ചെറുപാ യത്തിൽ തന്നെ
എളുപ്പത്തിൽ അകപ്പെടുന്നു. ഇത് അവരുടെ യൗവ്വനത്തിലും മദ്ധ്യവയസ്സിലും സാന്മാർഗ്ഗിക കാഴ്ചപ്പാടുകളിൽ പ്രതിഫലിക്കും. 1982ൽ ഓസ്കാർ പുരസ്കാരം നേടിയ ഗാന്ധി യെന്ന സിനിമ ഗാന്ധിയെന്ന് സാത്വികരൂപത്തെ ലോകത്തിനു മുൻപിൽ അടുത്തറിയുന്നതിനും ആദരണീയനാക്കുന്നതിനും കാരണമായി.
മലയാളഭാഷയിലും മറ്റു പ്രാദേശിക ഭാഷകളിലും സംവേദനം ചെയ്യപ്പെടുന്ന സിനിമയ്ക്ക് പത്തിന്റെ പ്രദേശത്തിന്റെ സാംസ്കാരിക മ പ്രതിഫലനങ്ങൾ തന്നെയാണ്. വേഷവിധാനങ്ങ ളിൽ വരുത്തുന്ന സ്വാധീനങ്ങളെ ശ്രദ്ധിക്കുക. സിനിമകൾ സൂചി കങ്ങളാകുന്ന എത്രയിനം വസ്ത്രധാരണ രീതികളും വസ്ത്രഡി സൈനുകളുമാണുള്ളത്.
മലയാളത്തിൽ ഇറങ്ങിയ ഒരു സിനിമ കഞ്ചാവിന്റെ ഉപയോഗത്തെ ത്വരിതമാക്കിയെന്ന ആരോപണ മേൽക്കുകയുണ്ടായി. അനിയത്തിപ്രാവ് സിനിമയിലൂടെ കേരളീ യർക്കിടയിൽ ഒരു ചുരിദാർ ഡിസൈൻ പ്രചരിച്ചത് നമ്മൾ മറന്നിട്ടില്ല. നരസിംഹം സിനിമയിലൂടെ കേരളീയരിൽ പ്രചരിച്ച ‘മോനേ ദിനാശാ പ്രയോഗവും, രാജമാണിക്യം സിനിമയിലൂടെ പ്രചരിച്ച ‘യവൻ പുലിയാണ്
കേട്ടോ’ മലയാളി സമൂഹത്തിൽ ചെലുത്തിയ സ്വാധീനത്തെയാണ് കാണിക്കുന്നത്. സമൂഹത്തിലുണ്ടാകുന്ന വളർച്ചയും തളർച്ചയും ഉന്മാദവും ഉത്സാഹവും ഭീഷണിയും സംസ്കാരിക ശോഷണവും എല്ലാം തന്നെ സിനിമയെ ബാധിക്കുന്നു. നന്മയെ ചൂണ്ടുപലകയാക്കുന്ന സാന്മാർഗിക സങ്കൽപ്പങ്ങൾക്ക് ഊർജ്ജം പകരുന്നു.
മൂല്യവത്തായ സിനിമകൾ തന്നെ. മനുഷ്യരാശിക്ക് അതിന്റെഗുണ പരമായ വളർച്ചയ്ക്കും വളമാകുന്നത്. അല്ലാത്തപക്ഷം വികല മനസ്സുകളുടെ അപകടം നിറഞ്ഞ ഒരു മുൾക്കാടായിരിക്കും സിനിമയ്ക്ക് സൃഷ്ടിക്കാനാവുക.
അധികവായന
സിനിമ ഒരു ഉത്പന്നമാണ്. എല്ലാ ഉത്പന്നങ്ങളേയും പോലെ അതും കമ്പോളടിസ്ഥാനത്തിൽ മൂല്യം നിർണ്ണയിക്കുന്നുണ്ട്. നാം ജീവിക്കുന്ന സാമ്പത്തിക സാമൂഹിക വ്യവസ്ഥയിലെ സ്വാധീനങ്ങളുടെ ജയാപജയത്തോടെയാണ് അതിന്റെ വിജയം നിലനിൽക്കുന്നത്. വസ്തുക്കൾ മാത്രമല്ല വിനിമയം ചെയ്യപ്പെടുന്നത്. ആശയങ്ങളും – ഭാഷയും സാംസ്കാരിക ഉത്പന്നങ്ങളുമെല്ലാം
വിനിമയം ചെയ്യു ന്നുണ്ട്. സംഗീതം, നാടകം, സ്വരം, സാഹിത്യം, ചിത്രകല എന്നിവ യെല്ലാം ഇങ്ങനെ വിനിമയം ചെയ്യുന്നതിൽപ്പെടുന്നു. സംഗീതം, നം, വസ്ത്രം എന്നിവയെല്ലാം ചില സംസ്ക്കാരത്തിൽ കൂടു തൽ വിജയസാധ്യത നേടുമ്പോൾ മറ്റു ചിലയിടത്ത് പരാജയപ്പെടാറുണ്ട്. എന്നാൽ അവ വിലയിരുത്തപ്പെടുന്നത് അവയുടെ ഉള്ള ടക്കത്തിന്റെ അടിസ്ഥാനത്തിലാണ്.
നിരന്തരം രൂപാന്തരം പ്രാപിക്കുന്ന കമ്പോളം ഒരുപക്ഷെ സിനിമയുടേതായിരിക്കും. അതിനാൽ പരിണാമ പ്രക്രിയക്ക് പൂർണ്ണ മായും വിധേയമാക്കപ്പെട്ട സാംസ്കാരിക ഉൽപ്പന്നമാണ് സിനിമ. ഇതിനെ മറികടക്കുന്ന സിനിമകൾ അതിന്റെ അവതരണശൈലി യിൽ കൃത്യത പാലിക്കുന്ന ആസ്വാദകതലങ്ങളെ മറികടക്കുന്ന അത്ഭുതങ്ങളാണ്.
പലതരം സിനിമകൾ നിലനിൽക്കുന്നതിനാൽ അവ തീവ്രമായി സംസ്കാരത്തോട് വർഗ്ഗസമരം നടത്തുക യാണ്. അതിനാൽ സമൂഹത്തിന്റെ മൂല്യങ്ങളെ നിർണ്ണയിക്കു കയും നവീകരിക്കുകയും ചെയ്യുന്ന ഒരു രാഷ്ട്രീയ പ്രകിയ യാണ് സിനിമ. ജനപ്രിയ സിനിമകൾ ഒന്നുംതന്നെ അംഗീകൃത സാമൂഹികമ ര്യാദകളെ മറികടക്കാൻ ധൈര്യപ്പെടുന്നവയല്ല. മാത്രമല്ല അതിലെ
യാഥാർത്ഥ്യങ്ങൾ ഒരുപക്ഷേ ജീവിത യാഥാർത്ഥ്യങ്ങ ളാകണമെന്നില്ല. സൂക്ഷ്മമായി പറഞ്ഞാൽ ബഹുഭൂരിപക്ഷം വരുന്ന ജനവിഭാഗത്തെ സംബന്ധിച്ച് സിനിമ നൽകുന്നുവെന്നു പറയുന്ന ആസ്വാദനം വിപരീത ഫലങ്ങളിലേയ്ക്കായിരിക്കും കടന്നു പോവുക. അത് സ്വപ്നത്തിൽ നില നിൽക്കുന്നതും യഥാർത്ഥത്തിൽ സംഭവിക്കാത്തതും
ആസ്വാദകർ നിലവിലുള്ള സാംസം അടയാളങ്ങളെ അറിയണം. സിനി മാറ്റിമറിക്കുന്ന യാഥാർത്ഥ്യങ്ങളെ അതിന്റെ തലത്തിൽ തന്നെ അംഗീകരിക്കാൻ തയ്യാറാകണം. അല്ലെങ്കിൽ അയഥാർത്ഥ വസ്തുക്കളെ യാഥാർത്ഥ്യവൽക്കരിക്കുന്നതിൽ സംതൃപ്തി നേടേ ണ്ടതായി വരും.
മാത്രമല്ല സംസ്കാരത്തിൽ ഒരിക്കലും കാണാൻ സാധിക്കാത്ത മൂല്യങ്ങളെ ഉയർത്തിക്കാണിച്ചു തൃപ്തിപ്പെടുന്ന അത് എത്രത്തോളം സിനിമയെന്ന ഉത്പന്നത്തെ പരിപോഷിപ്പിക്കും എന്നത് ചിന്തിക്കേണ്ടതുണ്ട്. ഉദാഹരണത്തിന് റെഡ് ചില്ലീ സിലെ മോഹൻലാൽ, മോഹൻലാൽ എന്ന കഥാപാത്രത്തിനു വേണ്ടി ബാക്കി കഥാപാത്രങ്ങൾ വഴങ്ങിനിൽക്കുന്നു. അസ്വാ ഭാവികമായ സന്ദർഭങ്ങൾ ഈ നായകന്റെ പേരിൽ
കാണികൾക്ക് വിശ്വസിക്കേണ്ടി വരുന്നു. ലാലിന്റെ ഓർമ്മ നഷ്ടപ്പെടൽ അഭി നയം അസഹ്യപ്പെടുത്തുന്ന ഒന്നാണ്. പടയപ്പയിൽ രജനീകാന്ത് കാൽവിരൽകൊണ്ട് കാളയുടെ കയറ് ചവിട്ടിപ്പിടിക്കുന്നതും ഇവിടെ ആൾദൈവത്തിന്റെ സാംസ്കാരിക പ്രവണതയെ കാണിക്കുന്നു.
നല്ല ആശയത്തെ നല്ല സിനിമയാക്കുക എന്ന ഉയർന്ന തലത്തിലേയ്ക്ക് കൊണ്ടുവരുമ്പോൾ ഉണ്ടാകുന്ന പ്രതിബന്ധ ങ്ങളായിരിക്കും ഒരുപക്ഷെ ജനപ്രിയ സിനിമകൾ ഉത്തമസിനിമ കൾ എന്ന വേർതിരിവ് രൂപപ്പെടുത്തുന്നത്.
ഇതൊക്കെയാണ് ങ്കിലും ഈ ലോകത്ത് വ്യത്യസ്തമായി ജീവിക്കുന്ന മനുഷ്യൻ സാധാരണക്കാരെപ്പോലെ പെരുമാറാൻ ശക്തിനേടിയവരാണ്. എന്നാൽ അവരുടെ ജീവിത പ്രശ്നങ്ങൾ സിനിമയാകുമ്പോൾ എന്തുകൊണ്ടാണ് ജനപ്രിയത്തിൽ നിന്ന് മാറിപ്പോകുന്നത് എന്ന് ശ്രദ്ധിച്ചാൽ മനസ്സിലാകും നാം മാറിപ്പോകുന്ന ഇടങ്ങൾ ജനപ്രിയത്തിൽ നിന്നുള്ള അകൽച്ചയാണെന്ന്.
Conclusion:
The relationship between cinema and society is a complex and comprehensive one. However, it is clear that this relationship creates an artistic cycle. This cycle reinforces each other, enriching both cinema and society.
ओजोन पृथ्वी के वायुमंडल की एक परत है जो सूर्य से आने वाली हानिकारक पराबैंगनी (UV) विकिरण से पृथ्वी को बचाती है। ओजोन विघटन वह प्रक्रिया है जिसमें ओजोन परत क्षतिग्रस्त हो जाती है और इसकी सुरक्षात्मक क्षमता कम हो जाती है।
ओजोन विघटन का संकट एक गंभीर पर्यावरणीय मुद्दा है जो मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण दोनों के लिए खतरा है। ओजोन परत में क्षति के परिणामस्वरूप त्वचा कैंसर, मोतियाबिंद और अन्य स्वास्थ्य समस्याओं का खतरा बढ़ सकता है। इसके अलावा, ओजोन परत में क्षति पौधों और जानवरों को भी नुकसान पहुंचा सकती है।
ओजोन विघटन का संकट लेखक का नाम : डॉ कृष्ण कुमार मिश्र। (जन्म 15 मार्च, 1966.)
ओजोन विघटन का संकट प्रमुख कृतियाँ : लोक विज्ञान, समकालीन रचनाएँ, विज्ञान-मानव की यशोगाथा, जल-जीवन का आधार आदि।
ओजोन विघटन का संकट विशेषता : हिंदी साहित्य में विज्ञान संबंधी लेखन कार्य में विशेष पहचान। आपने विज्ञान को लोकप्रिय बनाने और जनमानस तक पहुँचाने का उल्लेखनीय कार्य किया है। लोक विज्ञान के अनेक विषयों पर हिंदी में व्यापक लेखन किया है। विज्ञान से संबंधित आपकी अनेक मौलिक एवं अनूदित पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। डॉ कृष्ण कुमार मिश्र विज्ञान लेखन की समकालीन पीढ़ी के सशक्त लेखक हैं।
ओजोन विघटन का संकट विधा : विज्ञान संबंधी लेख।
ओजोन विघटन का संकट विषय प्रवेश : प्रस्तुत निबंध में लेखक बता रहे हैं कि मनुष्य अपनी सुविधाओं के लिए, जीवन को आरामदायक बनाने के लिए दिन-रात नए-नए आविष्कार करता रहता है। इन नवीन खोजों के कारण पर्यावरण दिन-ब-दिन प्रदूषित होता जा रहा है। हमारी स्वार्थी प्रवृत्ति के चलते सूर्य से आने वाली हानिकारक पराबैंगनी किरणों को रोकने के लिए पर्यावरण में विद्यमान ओजोन परत को क्षति पहुँच रही है। आज हालात की यह माँग है कि ओजोन को होने वाली क्षति को हम रोकें ताकि इस सृष्टि को विनाश से बचाया जा सके।
ओजोन विघटन का संकट पाठ का सार
आज का युग विज्ञान और प्रौद्योगिकी का युग है। पूरी दुनिया में भौतिक विकास की होड़ लगी हुई है। विकास की इस दौड़ ने जिन समस्याओं को जन्म दिया है, इनमें प्रदूषण की समस्या चिंतनीय है। हवा, पानी, मिट्टी सभी प्रदूषण की गिरफ्त में आ चुके हैं। इनमें भी पर्यावरणीय प्रदूषण बहुत बड़े संकट का रूप ले चुका है।
पर्यावरण में विद्यमान अनेक गैसों में एक गैस है ओजोन। यह गैस मानव स्वास्थ्य के लिए तो हानिकारक है, परंतु वायुमंडल में मौजूद यही गैस हमारी रक्षा भी करती है। यह गैस धरती के वायुमंडल में 15 से 20 किलोमीटर की ऊँचाई तक पाई जाती है।
यह ओजोन गैस बाह्य अंतरिक्ष से आने वाली पराबैंगनी किरणों को अवशोषित करके उन्हें धरती पर आने से रोकती है। यदि ये किरणें धरती की सतह तक चली आएँ तो एक ओर तो धरती के तापमान में वृद्धि होगी, दूसरी ओर त्वचा संबंधी अनेकानेक व्याधियाँ फैलेंगी। वायुमंडल में स्थित ओजोन की परत हमें इन घातक किरणों से बचाती है।
विकास की दौड़ का हिस्सा बनकर हमने सभी संसाधनों का अंधाधुंध इस्तेमाल किया है। जिसके कारण प्राकृतिक संतुलन चरमरा गया है। दैनिक जीवन में कीटनाशक, प्रसाधन सामग्री, दवाएँ, रंग-रोगन, फ्रिज तथा एयरकंडिशनिंग में प्रशीतन का अहम स्थान है। सन 1930 से पहले प्रशीतन के लिए अमोनिया और सल्फर डाइऑक्साइड गैसों का इस्तेमाल किया जाता था, जो अत्यंत तीक्ष्ण होने के कारण मानव स्वास्थ्य के लिए हानिकारक थीं।
तीस के दशक में क्लोरो फ्लोरो कार्बन (सी एफ सी) नामक यौगिक की खोज हुई। रंगहीन, गंधहीन, अक्रियाशील और अज्वलनशील होने के कारण बड़े पैमाने पर सी एफ सी यौगिकों का उत्पादन होने लगा और घरेलू कीटनाशक, प्रसाधन सामग्री, दवाएँ, रंग-रोगन, यहाँ तक कि रेफ्रिजिरेटर और एयरकंडिशनर में इनका खूब इस्तेमाल होने लगा। 1974 में एक अमेरिकी वैज्ञानिक एफ एस रोलैंड ने बताया कि सी एफ सी यौगिक धरती की ओजोन परत को नष्ट कर चुके हैं। क्योंकि सी एफ सी यौगिक इस्तेमाल में आने के बाद वायुमंडल में पराबैंगनी किरणों के संपर्क में आते हैं।
ओजोन विघटन संकट पर विचार करने के लिए अनेक देशों की पहली बैठक 1985 में विएना में हुई। बाद में सितंबर 1987 में कनाडा के मांट्रियल शहर में बैठक हुई, जिसमें दुनिया के 48 देशों ने भाग लिया था। इसके तहत यह प्रावधान रखा गया कि 1995 तक सभी देश सी एफ सी की खपत में 50 प्रतिशत की कटौती तथा 1997 तक 85 प्रतिशत की कटौती करेंगे। सन 2010 तक सभी देश सी एफ सी का इस्तेमाल एकदम बंद कर देंगे। इस दौरान विकसित देश नए प्रशीतकों की खोज में विकासशील देशों की आर्थिक मदद करेंगे।
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